“खुलासा: सपिंड विवाह पर दिल्ली हाई कोर्ट का चौंकाने वाला फैसला!”
हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिन्दू विवाह अधिनियम (HMA) की धारा 5(v) की वैधता को बरकरार रखा, जो “सपिंड” संबंधों के बीच विवाहों पर प्रतिबंध लगाती है। ‘सपिंड’ शब्द, ‘पिंड’ से निकला है, जिसका अर्थ है श्राद्ध समारोह में पूर्वजों को अर्पित चावल का एक गोला। हिन्दू कानून के अनुसार, जब दो व्यक्ति एक ही पूर्वज को ‘पिंड’ अर्पित करते हैं, तो उन्हें ‘सपिंड’ संबंधी माना जाता है। ये संबंध एक ही रक्त से जुड़े होते हैं। इस विषय पर चर्चा करते हुए, एक व्यक्ति ने न्यायालय में एक मामला प्रस्तुत किया जिसमें उसने बताया कि उसका और उसकी पत्नी का विवाह सपिंड संबंधों के अंतर्गत आता है और इसलिए उसे अवैध माना जाना चाहिए। इस पर न्यायालय ने उसकी बात को स्वीकार किया। इसके बाद, महिला ने हाई कोर्ट में अपील की और तर्क दिया कि विवाह तो हो चुका है और विवाह करने की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है। इस पर अदालत ने फैसला सुनाया कि सपिंड विवाह संबंधी जो भी प्रावधान हैं, वे सही हैं और उनमें कोई बदलाव नहीं होगा।
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सपिंड विवाह का मतलब है कि जब एक निश्चित सीमा के भीतर दो लोगों का एक ही पूर्वज होता है, तो उनके बीच विवाह नहीं हो सकता। हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार, अगर मां की तरफ से तीन पीढ़ी और पिता की तरफ से पांच पीढ़ी तक का संबंध हो, तो विवाह नहीं हो सकता। इसके अलावा, अगर कोई यह साबित कर सकता है कि उनके परिवार में इस प्रकार का रिवाज है और यह रिवाज आज भी मान्य है, तो ऐसे में सपिंड विवाह की अनुमति हो सकती है।इस मामले में, अदालत ने यह भी कहा कि सपिंड विवाह को रोकने का प्रावधान अनुच्छेद 14 के बराबरी के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत सपिंड विवाहों पर लगाए गए प्रतिबंध वैध हैं और इसमें कोई बदलाव नहीं होने वाला है। इस विषय पर विस्तृत चर्चा ने इस कानूनी पहलू को और भी स्पष्ट कर दिया है।
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“विवाहः कुलधर्माणां प्रथमो धर्मसंग्रहः।
सपिण्डीकरणात् पूर्वं न गृह्णीयात् कदाचन॥”
अर्थ – “विवाह कुल के धर्मों का प्रथम संग्रह है। सपिंडीकरण से पहले कभी भी विवाह नहीं करना चाहिए।” यह श्लोक हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह के महत्व को दर्शाता है, जिसमें विवाह को कुल के धर्मों का प्रथम संग्रह बताया गया है। इसमें ‘सपिंडीकरण’ का उल्लेख है, जो कि एक हिन्दू रीति है जिसमें एक ही पूर्वज के वंशज एक-दूसरे के साथ विवाह नहीं कर सकते। यह श्लोक उसी विषय से संबंधित है जिस पर लेख में चर्चा की गई है, जहां दिल्ली हाई कोर्ट ने सपिंड संबंधों में विवाह पर प्रतिबंध को बरकरार रखा है। इस प्रकार, यह श्लोक और लेख दोनों ही हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह के नियमों और परंपराओं को प्रकट करते हैं।
यह भी जानें –
प्रश्न: हिन्दू विवाह अधिनियम क्या है?
उत्तर: हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 भारतीय कानून का एक महत्वपूर्ण भाग है जो हिन्दू धर्म के अनुयायियों के विवाह संबंधी मामलों को नियंत्रित करता है। इस अधिनियम के तहत, विवाह की वैधता, विवाह विच्छेद, और विवाह संबंधी अन्य विधिक प्रावधानों को स्थापित किया गया है। इसका उद्देश्य हिन्दू समाज में विवाह के नियमों को एक समान और स्पष्ट बनाना था। इस अधिनियम के आने से पहले, विवाह संबंधी मामले विभिन्न स्थानीय और पारंपरिक रीति-रिवाजों पर आधारित थे।
प्रश्न: मौलिक अधिकार क्या हैं?
उत्तर: मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में प्रदान किए गए वे अधिकार हैं जो हर भारतीय नागरिक के लिए आवश्यक और अनिवार्य हैं। इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध संरक्षण, धर्म, संस्कृति और शिक्षा का अधिकार, संवैधानिक उपचारों का अधिकार और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल हैं। ये अधिकार नागरिकों को एक स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज में जीवन यापन करने की गारंटी देते हैं।
प्रश्न: धारा 5(v) क्या है?
उत्तर: धारा 5(v) हिन्दू विवाह अधिनियम का एक भाग है, जो सपिंड संबंधों में विवाह पर प्रतिबंध लगाती है। इस धारा के अनुसार, अगर दो व्यक्ति एक ही पूर्वज के सपिंड संबंधी हैं, तो उनके बीच विवाह वैध नहीं माना जाता। यह प्रावधान हिन्दू समाज में निकट संबंधियों के बीच विवाह को रोकने के लिए बनाया गया है, ताकि जैविक और सामाजिक स्वास्थ्य को बनाए रखा जा सके।
प्रश्न: अनुच्छेद 14 क्या है?
उत्तर: अनुच्छेद 14 भारतीय संविधान का एक हिस्सा है, जो सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण प्रदान करता है। इस अनुच्छेद के तहत, किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। यह अनुच्छेद यह सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को न्यायिक और प्रशासनिक प्रक्रियाओं में समान व्यवहार मिले। अनुच्छेद 14 का मूल उद्देश्य यह है कि राज्य द्वारा किसी भी नागरिक के साथ अन्यायपूर्ण भेदभाव न किया जाए और सभी को समान अवसर प्रदान किए जाएं। यह भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों में से एक है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। इस अनुच्छेद के माध्यम से, संविधान ने समानता और न्याय के आदर्शों को मजबूती प्रदान की है।