लेखक- सुरेश जी सोरतिया via NCI
सूर्य से केवल प्रकाश और गर्मी ही नहीं निकलती, बल्कि इससे उच्च ऊर्जा वाली गामा (Gamma) और एक्स-रे (X-ray) विकिरण भी अंतरिक्ष में फैलाई जाती है। इसके साथ ही विद्युत आवेशित कणों की एक धारा जिसे ‘सौर पवन’ (Solar Wind) कहा जाता है, भी चंद्रमा तक पहुँचती है। पृथ्वी की तरह चंद्रमा के पास कोई चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic Field) या वातावरण नहीं होता जो इस रेडिएशन से उसे बचा सके। यही कारण है कि सूर्य की विकिरण और सौर पवन सीधे चंद्रमा की सतह पर प्रभाव डालती हैं। यह प्रभाव धीरे-धीरे चंद्रमा की सतह की बनावट और उसकी रासायनिक स्थिति को बदल देता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस प्रभाव के कारण चंद्रमा की सतह का तापमान बहुत तेजी से बदलता है। जब सूर्य चंद्रमा पर चमकता है, तो सतह का तापमान लगभग 130 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। जबकि छायादार भागों में यह -160 डिग्री तक गिर सकता है।
तापमान में यह तेजी से होने वाला बदलाव चंद्रमा की सतह को गहरे स्तर पर प्रभावित करता है। सतह पर मौजूद पत्थरों में दरारें पड़ने लगती हैं और वे धीरे-धीरे टूटकर महीन धूल में बदल जाते हैं। यह प्रक्रिया लाखों वर्षों से चल रही है, जिसके परिणामस्वरूप आज पूरा चंद्रमा एक मोटी धूल की परत से ढका हुआ है। कई स्थानों पर यह धूल 15 मीटर तक मोटी है। यह धूल न केवल मोटी है, बल्कि इसके कण भी बेहद नुकीले होते हैं, जो अंतरिक्ष यात्रियों और उनके उपकरणों के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। जब अंतरिक्ष यान इस धूल पर उतरते हैं, तो उनके यांत्रिक हिस्से घिस सकते हैं या खराब हो सकते हैं। इस वजह से वैज्ञानिक चंद्रमा की धूल को एक गंभीर चुनौती मानते हैं। यह धूल टेक्नोलॉजी को नुकसान पहुंचा सकती है और अंतरिक्ष मिशनों के लिए खतरा बन सकती है। इसके अलावा, ये नुकीले कण अंतरिक्ष सूट (Space Suit) को भी नुकसान पहुँचा सकते हैं।
सूर्य की रेडिएशन और सौर पवन का असर केवल तापमान या धूल तक सीमित नहीं है। इनकी वजह से चंद्रमा की सतह की रासायनिक संरचना में भी बदलाव होता है। रेडिएशन के संपर्क में आने से धूल में छोटे-छोटे लोहे के नैनो-कण (Nano Particles) बन जाते हैं। इन नैनो-कणों की वजह से समय के साथ चंद्रमा की सतह गहरे लाल रंग की दिखाई देने लगती है। यह प्रक्रिया बहुत धीमी परंतु स्थायी होती है। वैज्ञानिकों ने इस बदलाव का अध्ययन चंद्रमा की कक्षा में घूम रहे जांच यंत्रों (Orbiting Probes) की मदद से किया। उन यंत्रों ने यह बताया कि जिन ऊँचे क्षेत्रों पर सूर्य का प्रकाश सीधे पड़ता है, वहां चट्टानों का रंग और बनावट तेजी से बदलती है। यह प्रक्रिया चंद्रमा के भूविज्ञान (Geology) को समझने में भी मदद करती है। साथ ही यह भी स्पष्ट करती है कि चंद्रमा की सतह क्यों अन्य ग्रहों की तुलना में अलग दिखाई देती है।
जब सौर पवन तेज़ होती है, तो इसके विद्युत आवेशित कण चंद्रमा की चट्टानों से अणुओं (Molecules) को बाहर निकाल देते हैं। ये अणु अंतरिक्ष में उड़ जाते हैं, जिससे चंद्रमा की सतह अपनी कुछ सामग्री खो देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे समय में चंद्रमा केवल कुछ ही दिनों में लगभग 200 टन मटेरियल (Material) खो सकता है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया बहुत लंबे समय से चल रही है और इसकी वजह से चंद्रमा धीरे-धीरे अपने स्वरूप में बदलाव देखता है। यह खोज भविष्य के चंद्र अन्वेषण मिशनों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वहाँ जीवन या संसाधनों की खोज को प्रभावित कर सकती है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि इसी प्रक्रिया से पानी के अणु भी चंद्रमा की चट्टानों में उत्पन्न हो सकते हैं। हालांकि यह पानी बहुत कम मात्रा में होता है, लेकिन इसके अध्ययन से हमें अंतरिक्ष में जल स्रोतों की उपस्थिति के बारे में अहम जानकारी मिलती है। यह जानकारी भविष्य में अंतरिक्ष यात्राओं के लिए अमूल्य हो सकती है।
चंद्रमा के ध्रुवीय (Polar) क्षेत्रों में सूर्य की सौर पवन कुछ अलग प्रभाव डालती है। वहां यह सतह को हल्के से छूती है, जिससे वहां के गड्ढों में विद्युत आवेश (Electric Charge) पैदा हो सकता है। यह आवेश अंतरिक्ष यात्रियों और उपकरणों के लिए एक नया खतरा बन सकता है। खासकर जब मानव मिशन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर भेजे जाते हैं, तो यह खतरा और बढ़ जाता है। ये क्षेत्र वैज्ञानिकों के लिए रोचक हैं क्योंकि यहीं पानी की संभावना सबसे अधिक मानी जाती है। लेकिन अगर वहाँ के गड्ढे विद्युत रूप से चार्ज हो रहे हों, तो वहाँ काम करना मुश्किल हो सकता है। वैज्ञानिकों को इसके लिए खास उपकरण और तकनीक विकसित करनी होगी। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि वहाँ की सतह पर लैंडिंग करने वाले यान और अन्य मशीनें इन आवेशों से सुरक्षित रहें। इस तरह, सूर्य की ऊर्जा एक बार फिर चुनौती बनकर सामने आती है।
चंद्रमा की सतह पर सूर्य से आने वाली रेडिएशन और सौर पवन की मार वैज्ञानिकों और अभियानों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। यह ना केवल सतह की स्थिति को बदलती है, बल्कि वहां उपकरण लगाने, वहां कार्य करने और वहाँ समय बिताने के लिए खतरे भी उत्पन्न करती है। वैज्ञानिकों को यह जानना जरूरी है कि सतह पर रेडिएशन की कितनी तीव्रता है और किस समय यह सबसे अधिक होती है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य के चंद्रमिशन किन जगहों पर अधिक सुरक्षित हो सकते हैं। इसके अलावा, उपकरणों को इस विकिरण से बचाने के लिए नई तकनीकें विकसित करनी होंगी। उदाहरण के तौर पर, अंतरिक्ष सूट और यानों में विशेष परतें जोड़ी जा सकती हैं। वैज्ञानिक यह भी विचार कर रहे हैं कि चंद्रमा पर रहने योग्य अड्डे (Bases) ऐसे इलाकों में बनाए जाएं जहाँ यह प्रभाव कम हो। यह चुनौतियाँ चंद्र अन्वेषण को और रोचक बनाती हैं।
चंद्रमा पर सूर्य की विकिरण का प्रभाव गहरा और बहुआयामी है। यह न केवल भूगोल को बदलता है, बल्कि रासायनिक संरचना, तापमान, धूल, और इलेक्ट्रिकल चार्ज तक सब कुछ प्रभावित करता है। यही कारण है कि भविष्य के मिशनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है। अब जब मानव फिर से चंद्रमा पर जाने की योजना बना रहा है, तो इन जानकारियों को गंभीरता से लेना अनिवार्य हो गया है। इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि किन जगहों पर बेस कैंप (Base Camp) बनाए जा सकते हैं और कैसे वहाँ सुरक्षित तरीके से रहा जा सकता है। यह अध्ययन भविष्य में मंगल या अन्य ग्रहों की यात्रा की तैयारी के लिए भी सहायक साबित हो सकता है। चंद्रमा को केवल अध्ययन का विषय न मानकर एक संभावित ठिकाना मानना अब हमारी ज़रूरत बन गया है। वैज्ञानिक निरंतर इस पर शोध कर रहे हैं, ताकि हम एक दिन चंद्रमा को भी अपना दूसरा घर बना सकें।