रूस ने दुनिया को चौंकाते हुए तालिबान को अफगानिस्तान की आधिकारिक सरकार के रूप में मान्यता दे दी है। यह फैसला सिर्फ रूस और अफगानिस्तान तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे पूरी दुनिया की राजनीति, खासकर मध्य एशिया में हलचल मच गई है। इस कदम के बाद अब यह जानना बेहद जरूरी हो गया है कि कौन-कौन से देश हैं जो अब भी तालिबान को एक आतंकी संगठन मानते हैं और उसके साथ औपचारिक रिश्ते नहीं रखना चाहते।
रूस का तालिबान को मान्यता देना अचानक भले ही लगे, लेकिन इसके पीछे कई गहरी रणनीतिक वजहें हैं। दरअसल रूस नहीं चाहता कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल ISIS-K या अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठन करें। रूस मध्य एशिया में शांति और स्थिरता बनाए रखना चाहता है ताकि उसके आसपास के देशों में कट्टरपंथ और हिंसा न फैले।
इसके अलावा रूस की नजर अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों और वहां के व्यापारिक रास्तों पर भी है। अफगानिस्तान खनिजों से भरा पड़ा है, जिसमें तांबा, लिथियम जैसे कीमती खजाने हैं। रूस को लगता है कि तालिबान से अच्छे रिश्ते बनाकर वो इस संसाधनों तक आसान पहुंच बना सकता है।
तालिबान ने अगस्त 2021 में अफगानिस्तान की सत्ता पर दोबारा कब्जा कर लिया था, जब अमेरिका ने अपनी सेना वहां से वापस बुला ली थी। तब से लेकर अब तक ज्यादातर देश तालिबान सरकार से दूरी बनाकर चल रहे थे। कोई भी देश तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता देने को तैयार नहीं था, क्योंकि तालिबान पर महिलाओं के अधिकारों का हनन करने, लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुचलने और मानवाधिकारों को नजरअंदाज करने जैसे गंभीर आरोप हैं।
लेकिन रूस ने अब तालिबान का झंडा अपने यहां मौजूद अफगानिस्तान के दूतावास पर फहराने की अनुमति देकर यह साफ कर दिया कि वो तालिबान को अफगानिस्तान की आधिकारिक सरकार मानता है।
रूस के इस फैसले के बावजूद अभी भी कई देश हैं जो तालिबान को आतंकवादी संगठन ही मानते हैं।
भारत ने अब तक तालिबान को औपचारिक मान्यता नहीं दी है। भारत बहुत सावधानी और सतर्कता के साथ तालिबान की गतिविधियों को देख रहा है। हालांकि पाकिस्तान के साथ हुए घटनाक्रमों के चलते तालिबान और भारत के बीच बातचीत की कोशिशें हुई थीं, लेकिन भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी।
अमेरिका, जिसने करीब 20 साल तक अफगानिस्तान में युद्ध लड़ा, उसने अपनी सेनाएं भले ही वहां से वापस बुला ली हों, लेकिन आज भी तालिबान को आतंकवादी संगठन की ही तरह देखता है। अमेरिका ने तालिबान पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाए हुए हैं।
कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी तालिबान को आतंकवादी संगठन ही मानते हैं।
यूरोपीय संघ के कई देश भी तालिबान को मान्यता देने के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि तालिबान मानवाधिकारों, खासकर महिलाओं की आज़ादी और शिक्षा के अधिकारों का उल्लंघन करता है।
अगर सीधे शब्दों में कहें तो रूस के अलावा आज तक कोई भी देश तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता देने के लिए आगे नहीं आया है। दुनिया के ज्यादातर देश अब भी तालिबान को एक कट्टरपंथी और आतंक फैलाने वाला संगठन मानते हैं।
हालांकि रूस के इस कदम के बाद अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या चीन, ईरान या पाकिस्तान जैसे देश भी इसी राह पर चलेंगे या फिर तालिबान को लेकर वही पुरानी सतर्क नीति अपनाएंगे।
तालिबान को मान्यता देने का मामला सिर्फ एक औपचारिकता नहीं है। यह एक ऐसा फैसला है जो आने वाले वक्त में मध्य एशिया में शांति, आतंकवाद और वैश्विक कूटनीति की दिशा तय करेगा। आम लोग भी इस फैसले पर अपनी-अपनी राय दे रहे हैं — कोई इसे रूस की मजबूरी बता रहा है, तो कोई इसे रूस की दूरदर्शी चाल मान रहा है।
अब आने वाला वक्त ही बताएगा कि तालिबान वाकई अफगानिस्तान में स्थिरता और विकास ला पाएगा या फिर दुनिया की चिंता सच साबित होगी और वहां से आतंक फिर से फैलने लगेगा।