साउथईस्ट एशिया का इतिहास बहुत गहरा और संपन्न रहा है। कभी यह पूरा क्षेत्र हिंदू राजाओं के अधीन था। अगर हम कंबोडिया और थाईलैंड को देखें तो रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्य इन देशों की संस्कृति में भी दिखते हैं। दसवीं शताब्दी (century) से यहां हिंदू राजाओं का शासन रहा, जिन्होंने बड़ी संख्या में मंदिर बनाए। आज भी अंकोरवाट (Angkor Wat) और प्रीह विहार (Preah Vihear) जैसे कई मंदिर इन्हीं ऐतिहासिक काल की याद दिलाते हैं। ये मंदिर विश्व धरोहर (World Heritage) की सूची में शामिल हैं और उनकी धार्मिक व सांस्कृतिक पहचान के केंद्र में हैं।
कंबोडिया और थाईलैंड का सीमा विवाद मुख्य रूप से प्रीह विहार मंदिर को लेकर है। यह मंदिर शिव जी को समर्पित है, लेकिन बौद्ध धर्म का असर भी यहां दिखाई देता है। 1962 में अंतरराष्ट्रीय अदालत (International Court of Justice) ने इस मंदिर को कंबोडिया का हिस्सा माना। फिर भी, दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारित करने को लेकर विवाद चलता आ रहा है। मंदिर न सिर्फ धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि राष्ट्रगौरव (national pride) का भी प्रतीक बन चुका है। यही वजह है कि दोनों देशों की जनता और सरकारें इसे लेकर बेहद संवेदनशील रहती हैं।
इस विवाद की जड़ें औपनिवेशिक काल (colonial era) में हैं। 1907 में फ्रांसीसी हुकूमत (French rule) ने जो नक्शा तैयार किया, उसी के आधार पर प्रीह विहार मंदिर कंबोडिया को मिला। थाईलैंड ने भी शुरुआत में मान लिया था, लेकिन बाद में विवाद शुरू हो गया। इस इलाके में तमाम छोटे-बड़े मंदिर है, जिनपर दोनों देश अपना दावा करते हैं। फ्रांसीसी समझौते के चलते सीमा रेखा आज भी स्पष्ट नहीं है, जिसकी वजह से बार-बार टकराव होता रहता है।
प्रीह विहार मंदिर अपनी अनूठी वास्तुकला (architecture) और धार्मिक महत्ता के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है, जिससे इसका दृश्य अत्यंत सुंदर और आकर्षक है। मंदिर में भगवान शिव की प्रतिमा के साथ ही बौद्ध मूर्तियां भी मिलती हैं। स्थापत्य में नाग (serpent) बेलस्ट्रेड्स, सीढ़ियां और छतों का विशेष महत्व है। यह मंदिर 800 मीटर लंबे उत्तर-दक्षिण अक्ष (axis) पर फैला हुआ है, और इसे पहाड़ों का मंदिर (mountain temple) भी कहा जाता है। आज भी यहां परंपरागत रीति-रिवाज चलते हैं और एक छोटा सा बौद्ध मठ सक्रिय रहता है।
सीमा विवाद के चलते दोनों देशों के बीच कई बार संघर्ष (clashes) हो चुके हैं। खासकर 2008 से 2011 के बीच इस क्षेत्र में गोलीबारी, बमबारी, और सैनिक झड़पें होती रहीं। जुलाई 2025 में फिर से लड़ाई छिड़ गई, जिसमें हवाई हमलों (airstrikes) और जमीन पर गोलीबारी तक हुई। कई ग्रामीणों की जानें गईं और दर्जनों गांवों को खाली कराना पड़ा। हर बार दोनों देश एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं कि पहल दूसरी तरफ से हुई थी।
कंबोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया समेत साउथईस्ट एशिया के तमाम देशों में हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म ने गहरा असर छोड़ा है। मंदिरों की स्थापत्य शैली, वहां की मूर्तिकला, धार्मिक कहानियां– सबकुछ भारत के प्रभाव को दर्शाता है। अयोध्या (Ayodhya) जैसे नाम, महाभारत-रामायण के प्रसंग इन देशों में लोकप्रिय हैं। यह सांस्कृतिक विरासत आज भी इनके समाज में देखी जा सकती है और भारत से भावनात्मक रूप से जोड़े रखती है।
सीमा विवाद केवल बाहरी संघर्ष नहीं, बल्कि दोनों देशों की आंतरिक राजनीति से भी जुड़ा है। थाईलैंड में राजनीतिक अस्थिरता (instability) का सीधा असर सीमा विवाद पर देखा गया है। हाल ही में थाई प्रधानमंत्री का निलंबन, सेना और सरकार की तनातनी, और बड़े नेता के विवादित बोल ने स्थिति को और जटिल बना दिया। वहीं कंबोडिया में पुराने नेता हुन्सेन (Hun Sen) और वर्तमान नेतृत्व की भूमिका भी अहम है।
कंबोडिया के लिए खमेर रूज (Khmer Rouge) का दौर एक बड़ा घाव रहा है। 1975 से 1979 तक पुरी आबादी पर अत्याचार, जबरन स्थानांतरण, और नरसंहार (genocide) हुआ। इस अत्याचार ने सामाजिक और आर्थिक तानाबाना तोड़ा। बड़ी संख्या में लोग सीमा पार थाईलैंड में शरणार्थी बन गए। इसके बाद 1991 में शांति समझौते हुए, लेकिन उस दौर की टीस आज भी बाकी है।
सीमा क्षेत्र में पुराने समय से बिछी लैंडमाइंस (landmines) आज भी मौत बनकर घूमती हैं। आए दिन सैनिक या नागरिक इनका शिकार हो जाते हैं। हाल ही में एक थाई सिपाही का पैर लैंडमाइन से उड़ गया, जिससे फिर हिंसा भड़क गई। दोनों देश एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन आम लोग मुश्किल में हैं। घर छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ता है और आजीविका पर गहरा असर पड़ता है।
संयुक्त राष्ट्र (UN), अंतरराष्ट्रीय अदालत, और यूनस्को (UNESCO) समय-समय पर विवाद सुलझाने की कोशिश करते रहे हैं। दोनों देशों को वार्ता के लिए कहा जाता है, लेकिन जमीनी स्तर पर समाधान नहीं निकल पाता। हर बार सीमा समझौते को आगे बढ़ाने, सैनिक वापसी, और सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा की बातें होती हैं। सैयुक्त सम्मेलन, विशेष कमेटियां बनीं, लेकिन जमीन पर संघर्ष जारी है।
इस विवाद का सबसे बड़ा खामियाजा स्थानीय नागरिकों और टूरिज्म (tourism) को भुगतना पड़ता है। दोनों देश प्रमुख पर्यटक स्थल (tourist destination) हैं, जहां लाखों लोग घूमने आते हैं। संघर्ष की वजह से पर्यटन ठप पड़ जाता है, लोगों की नौकरी जाती है और आमदनी घट जाती है। गांव खाली कराए जाते हैं और बच्चों की पढ़ाई तक बाधित होती है। 2025 के संघर्ष में पहली बार थाईलैंड ने एफ16 (F-16) फाइटर जेट का इस्तेमाल कर कंबोडियाई ठिकानों पर बमबारी की। यह सैन्य शक्ति का बड़ा उदाहरण है, जिससे यह कल्पना की जा सकती है कि लड़ाई और भयानक रूप ले सकती है। कंबोडिया ने भी अपने सैन्यबल का प्रदर्शन किया और अंतरराष्ट्रीय सहायता मांगी।
हालांकि यह विवाद भारत से सीधे नहीं जुड़ा, लेकिन भारत की संस्कृति का प्रभाव, आर्थिक रिश्ते और क्षेत्रीय स्थिरता इन मुद्दों को ध्यान में रखने लायक बनाते हैं। साउथईस्ट एशिया में भारत के खोए हुए अवसर (lost opportunities) और इन देशों की तेज प्रगति चर्चा में रहती है। आज ये देश टूरिज्म, अवसंरचना (infrastructure) और आर्थिक मजबूती में आगे बढ़ रहे हैं। भारत को इन बाल्कनों की शांति और सामाजिक स्थिरता में सहयोग करना चाहिए।
सीमा विवाद के मुद्दे जटिल हैं, लेकिन स्थायी समाधान संवाद (dialogue) और समझदारी से ही निकल सकते हैं। कंबोडिया-थाईलैंड विवाद का हल सिर्फ सैनिक कार्यवाही में नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक समझदारी में है। दोनों देशों को अपनी साझा विरासत को संरक्षित रखना चाहिए और भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की जगह विकास, शिक्षा और भाईचारा देना चाहिए। जब तक आपसी भरोसा और अंतरराष्ट्रीय समझदारी नहीं होगी, यह आग बुझती-बुझती फिर धधक उठेगी।
यह सीमा विवाद केवल एक मंदिर, एक जमीन का झगड़ा नहीं है, बल्कि यह इतिहास, संस्कृति, राजनीति और लोगों की भावनाओं से जुड़ा है। यही कारण है कि जब तक दोनों देश आपसी विश्वास और सुलह को प्राथमिकता नहीं देंगे, संघर्ष की संभावना बनी रहेगी। आने वाला समय ही बताएगा कि क्या प्रीह विहार और आसपास के क्षेत्र फिर से शांति देख पाएंगे या टकराव का चक्र चलता रहेगा।