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बलूचिस्तान में भारत की गुप्त रणनीति—क्या पाकिस्तान की नींव हिल रही है?

NCIvimarsh23 hours ago

बलूचिस्तान पाकिस्तान के सबसे बड़े और संसाधन-सम्पन्न प्रांतों में से एक है, लेकिन यह क्षेत्र लंबे समय से असंतोष और संघर्ष का केंद्र बना हुआ है। यहां के लोग लगातार पाकिस्तान सरकार की नीतियों से असंतुष्ट दिखते हैं। बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदाएं जैसे कि गैस, खनिज और बंदरगाह पाकिस्तान के लिए जरूरी हैं, परंतु स्थानीय जनता को इनका लाभ नहीं मिलता। इसी असंतोष के कारण बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA) जैसे अलगाववादी संगठन मजबूत हुए हैं। हाल के वर्षों में यहां विद्रोही गतिविधियां तेज़ हो गई हैं—BLA ने अनेक बार पाकिस्तानी सेना पर हमले किए हैं, जिनमें सड़कों, पुलिस स्टेशन और हथियार डिपो तक को निशाना बनाया गया है।

बलूचिस्तान में उग्रवाद का इतिहास आज़ादी के बाद ही शुरू हो गया था। पाकिस्तान की ओर से बलूच समाज और उनके नेताओं को अनदेखा करने की नीति ने असंतोष की जड़ें और गहरी कर दीं। धीरे-धीरे यह असंतोष हिंसक विद्रोह में बदल गया। विगत दो दशकों में अलगाववादी संगठनों ने अपनी ताकत को फिर से संगठित किया—जैसे BLA, BRA (बलूच रिपब्लिकन आर्मी) और अन्य छोटे-छोटे गुट। पाकिस्तान सरकार यहां सेना और अर्धसैनिक बलों को इस्तेमाल करती रही है, लेकिन विद्रोह बार-बार भड़क जाता है। इसी समय पर बलूचिस्तान के तटीय इलाकों जैसे ग्वादर पोर्ट के निर्माण और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) जैसी परियोजनाओं को भी विद्रोहियों का विरोध झेलना पड़ा।

पाकिस्तान लंबे समय से भारत पर आरोप लगाता रहा है कि भारत उसकी आंतरिक समस्याओं में दखल दे रहा है। विशेष तौर पर बलूचिस्तान में गुप्त रूप से सहायता पहुंचाने के दावे होते हैं। पाकिस्तान के अनुसार, भारत की खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ (RAW) विद्रोही गुटों को प्रशिक्षण, वित्त और रणनीतिक समर्थन देती है। हालांकि भारत इन आरोपों को हमेशा नकारता रहा है और इसे पाकिस्तान की अपनी असफलताओं को छुपाने की कोशिश मानता है। भारतीय रणनीति साफ है कि खुलकर किसी भी ऐसे विद्रोही संगठन का समर्थन करना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को भारी नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन इंटरनेशनल स्तर पर बलूच मानवाधिकार और पाकिस्तान सरकार की नीतियों का विरोध करना भारत के लिए लाभकारी हो सकता है।

पिछले कुछ समय में बलूच विद्रोहियों की सैन्य ताकत और नेटवर्क में वृद्धि देखी गई है। पहले जहां BLA के पास केवल 600 के आसपास लड़ाके थे, अब उनके पास 5,000 से 10,000 तक कैडर होने के दावे सामने आ रहे हैं। यह संख्या भले ही पाकिस्तान की पुरी सेना के मुकाबले बहुत छोटी है, लेकिन पहाड़ों और बीहड़ इलाके की भौगोलिक जटिलता ने विद्रोहियों की ताकत बढ़ाई है। कई बार पाकिस्तान सरकार को विद्रोहियों के साथ सुलह करनी पड़ी, सैकड़ों विद्रोही आत्मसमर्पण कर चुके हैं, लेकिन नए लड़ाकों की भर्ती और हथियारों की सप्लाई लगातार जारी है।

किसी भी देश में गुप्त और प्रॉक्सी (proxy) संचालन चलाने के लिए चार मुख्य चीजें जरूरी मानी जाती हैं – पहला, विद्रोही गुट की सैन्य क्षमता; दूसरा, बाहरी समर्थन; तीसरा, क्षेत्रीय देशों का सहयोग; चौथा, अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक दबाव। बलूचिस्तान संघर्ष में भी यही नजर आता है। पहले विद्रोही गुट छोटे थे, लेकिन अब इनकी संख्या और ताकत बढ़ी है। भारत पर लगातार आरोप लगते हैं कि वह बलूच आंदोलन का समर्थन करता है, हालांकि 1950 के दशक से लेकर अब तक कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाया। लेकिन, अफगानिस्तान, ईरान और कभी-कभी अमेरिका का नजरिया भी पाकिस्तान की मुश्किल बढ़ाता रहा है।

बलूचिस्तान अफगानिस्तान, ईरान और हिंद महासागर के करीब है। यह वजह है कि क्षेत्र के पड़ोसी देश यहां के घटनाक्रमों में रुचि रखते हैं। कभी अमेरिका ने भौगोलिक कारणों से बलूचिस्तान विद्रोह का समर्थन किया; कुछ समय तक पाकिस्तान को यह भी महसूस हुआ कि उसकी पश्चिमी सीमा असुरक्षित हो गई है। अफगानिस्तान में तालिबान की मज़बूती के चलते विद्रोही गुटों को छिपने और रणनीति बनाने का फायदा मिला। ईरान भी बलूच अलगाववाद से परेशान है, क्योंकि उसकी अपनी बलूच आबादी है। अब परिस्थितियां बदलती दिख रही हैं—पड़ोसी देश एक-दूसरे को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि पाकिस्तान के भीतर जो हो रहा है, उसका असर व्यापक हो सकता है।

पाकिस्तान ने अपने यहां की समस्याओं के लिए हमेशा बाहरी देशों को जिम्मेदार ठहराया है। बलूचिस्तान में उग्रवाद के जवाब में पाकिस्तानी आर्मी ने विभिन्न काउंटर टेररिज्म और सख्त कार्रवाई शुरू की, जिनमें अनेक मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी लगे। दूसरी तरफ, भारत या अन्य देशों का कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं साबित हो पाया, लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और सरकारें हमेशा यह नैरेटिव पेश करती रही हैं कि भारत साजिश रच रहा है। विद्रोहियों के लिए पड़ोसी देशों में शरण पाना, गुप्त ट्रांजैक्शन करना और बाहरी मदद हासिल करना अब पहले से आसान है। टेढ़ी भौगोलिक परिस्थितियों और स्थानीय समर्थन की वजह से पाकिस्तानी सेना को भी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

बलूचिस्तान का ग्वादर पोर्ट पाकिस्तान और चीन दोनों के लिए रणनीतिक महत्व रखता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) का सबसे अहम हिस्सा यही है, जिससे पाकिस्तान को अरब सागर तक सीधी पहुंच मिलती है। यही कारण है कि चीन बलूचिस्तान में स्थिरता चाहता है। हालांकि, विद्रोही गुट इस परियोजना का विरोध करते हैं और चीन के कामगारों पर भी कई बार हमले हो चुके हैं। चीन का सीधा हस्तक्षेप अभी तक सीमित ही रहा है, लेकिन अगर हालात बेकाबू हुए तो चीन अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत से दखल दे सकता है, जिससे पूरे इलाके में तनाव बढ़ सकता है।

बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा चलाए गए ऑपरेशन्स के दौरान मानवाधिकार उल्लंघनों की खबरें बार-बार आती हैं। जबरन गायब कर देना, टॉर्चर और अतिरेक बल प्रयोग जैसी घटनाएं लगातार सामने आती हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की छवि प्रभावित हुई है। बलूच एक्टिविस्ट सोशल मीडिया और ग्लोबल मंचों पर लगातार अपने मुद्दे उठा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी बलूच आंदोलन को अब ज्यादा कवर करता है। भारत जैसे देश वहां मानवाधिकार हनन के मसले को जोर-शोर से उठाते हैं, जबकि पाकिस्तान इसे विदेशी साजिश बताकर नकार देता है।

बलूचिस्तान मसला अब केवल सैन्य या स्थानीय संघर्ष नहीं रह गया है—it is a regional flashpoint (क्षेत्रीय तनाव का केंद्र)। भारत को भी अपनी रणनीति बेहद सतर्कता से बनानी होगी। सार्वजनिक रूप से बलूच विद्रोहियों को समर्थन देना भारत के अंतरराष्ट्रीय हितों के लिए जोखिम भरा हो सकता है। सबसे अच्छा रास्ता यही होगा कि मानवाधिकार हनन और स्थानीय जनता के अधिकारों के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ाया जाए। साथ में ऐसी कूटनीति बनाई जाए जिसमें अफगानिस्तान, ईरान, अमेरिका, चीन जैसी शक्तियों से भी संवाद बना रहे।

पाकिस्तानी सेना और सरकार की चुनौतियां

पाकिस्तान का आंतरिक असंतोष और नियंत्रित नेतृत्व की कमी कई बार देश को कमज़ोर बनाते हैं। सेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह किस प्रकार बलूचिस्तान जैसे इलाकों में स्थिरता लाए, जहां जनता का बड़ा वर्ग उसके विरोध में है। हाल के ऑपरेशनों में भी विद्रोहियों ने कड़ी टक्कर दी है और पाकिस्तान को सामरिक तथा वैश्विक स्तर पर शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। अपने देश की आंतरिक नीति और क्षेत्रीय साझेदारी के बिना इस मुद्दे का समाधान संभव नहीं है।

बलूचिस्तान की समस्या पूरी तरह जटिल है—यहां भू-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सैन्य कारक सभी मिलकर काम करते हैं। भारत की भूमिका विशेष रूप से संवेदनशील है—सीधी दखल के बजाय कूटनीतिक और मानवाधिकार पर केंद्रित नीति ही लाभकारी मानी जा सकती है। पाकिस्तान को भी अब अपनी आंतरिक कमजोरियां दूर करनी होंगी और बलूच जनता के साथ न्याय करना होगा। वरना यह आंतरिक असंतोष अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के लिए गंभीर संकट बन सकता है।

बलूचिस्तान का संघर्ष आने वाले समय में नये भौगोलिक और कूटनीतिक समीकरणों को जन्म दे सकता है। क्षेत्रीय स्थिरता केवल बल प्रयोग या बाहरी सहायता से नहीं, बल्कि साझेदारी, संवाद और न्यायिक नीति से ही आ सकती है। भारत-प्रशांत क्षेत्र में शांति के लिए अब इस मुद्दे की अनदेखी करना खतरनाक साबित हो सकता है।

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