Saphala Ekadashi 2025 : पौष मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को ‘सफला एकादशी’ के नाम से जाना जाता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह एकादशी हर कार्य को ‘सफल’ बनाने वाली और जीवन में कल्याण लाने वाली मानी जाती है। हमारे धर्मग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर को इस व्रत की महिमा बताई है। भगवान कहते हैं कि बड़े-बड़े यज्ञ करने या भारी दक्षिणा देने से मुझे उतना संतोष नहीं मिलता, जितना श्रद्धापूर्वक एकादशी का व्रत करने से मिलता है। इसलिए, जो भी मनुष्य अपने जीवन में सुख और शांति चाहता है, उसे पूरी कोशिश करके इस व्रत का पालन करना चाहिए। शास्त्रों में एकादशी तिथि को उतना ही श्रेष्ठ बताया गया है, जितना देवताओं में भगवान विष्णु, पक्षियों में गरुड़ और नागों में शेषनाग श्रेष्ठ हैं।
पूजा की विधि और फलों का महत्त्व सफला एकादशी की पूजा विधि बहुत ही विशेष और सरल है। चूँकि इसका नाम ‘सफला’ है, इसलिए इस दिन फलों के द्वारा भगवान श्रीहरि (नारायण) की पूजा का विधान है। भक्त को चाहिए कि वह भगवान के नाम-मंत्रों का उच्चारण करते हुए उन्हें विभिन्न प्रकार के ऋतु फल अर्पित करे। विशेष रूप से नारियल, सुपारी, बिजौरा नींबू, अनार, सुंदर आंवले, लौंग और बेर जैसे फलों का भोग लगाना चाहिए। फलों के साथ-साथ धूप और दीप जलाकर भगवान की अर्चना करनी चाहिए। इस एकादशी की रात को दीप-दान करने का बहुत महत्त्व है। साथ ही, रात्रि में भगवान के भजन-कीर्तन और वैष्णव पुराणों का पाठ करते हुए जागरण करना चाहिए। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस रात जागरण करता है, उसे हजारों वर्षों की तपस्या के बराबर फल प्राप्त होता है।
सफला एकादशी की पौराणिक कथा इस व्रत के प्रभाव को समझाने के लिए एक बहुत ही सुंदर और प्रेरणादायक कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में चम्पावती नाम की एक सुंदर नगरी थी, जहाँ राजा माहिष्मत राज्य करते थे। राजा के पाँच पुत्र थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा बेटा, जिसका नाम लुम्भक था, बहुत ही दुराचारी था। वह हमेशा पाप कर्मों में लिप्त रहता, देवताओं और ब्राह्मणों की निंदा करता और पिता के धन को गलत कार्यों में बर्बाद करता था। उसके इन कुकर्मों से तंग आकर राजा और उसके भाइयों ने उसे राज्य से बाहर निकाल दिया। राज्य से निकाले जाने के बाद लुम्भक जंगल में रहने लगा और वहीं चोरी-चकारी करके अपना जीवन बिताने लगा। वह दिन में जंगल में छिपता और रात में नगर में चोरी करने का प्रयास करता। वह एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे रहता था, जिसे उस वन में देवता के समान पूजा जाता था।
संयोगवश, एक बार पौष मास की दशमी तिथि को कड़ाके की ठंड के कारण लुम्भक के शरीर में वस्त्र न होने से वह पूरी रात ठिठुरता रहा। ठंड के कारण उसे न नींद आई और न ही चैन मिला। अगले दिन ‘सफला एकादशी’ थी, लेकिन ठंड और कमजोरी की वजह से वह दिन भर बेहोश पड़ा रहा। दोपहर को जब उसे थोड़ी चेतना आई, तो वह भूख से बेहाल था। वह लंगड़ाते हुए वन में गया और खाने के लिए कुछ फल जमा करके लाया। जब वह वापस अपने ठिकाने (पीपल के पेड़ के पास) पहुँचा, तब तक सूर्यास्त हो चुका था। वह इतना दुखी और कमजोर था कि वह उन फलों को खा भी नहीं सका। उसने उन फलों को पेड़ की जड़ के पास रख दिया और अनजाने में ही कहा— “इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों।”
अनजाने में किए गए व्रत का चमत्कारी फल लुम्भक ने उस रात भी ठंड और दुख के कारण नींद नहीं ली और पूरी रात जागता रहा। इस तरह अनजाने में ही उससे सफला एकादशी का व्रत और रात्रि जागरण संपन्न हो गया। भगवान तो भाव के भूखे हैं; उन्होंने उस अनजाने में किए गए व्रत को स्वीकार कर लिया। अगले ही दिन आकाशवाणी हुई कि “हे राजकुमार! सफला एकादशी के व्रत के प्रभाव से तुझे तेरा राज्य और पुत्र धन की प्राप्ति होगी।” इस वरदान के मिलते ही लुम्भक का रूप बदल गया, उसकी बुद्धि शुद्ध हो गई और वह भगवान विष्णु का भक्त बन गया। इसके बाद उसने अपने पिता से पुनः राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक न्यायपूर्वक शासन किया। बाद में, राज्य की जिम्मेदारी अपने पुत्र ‘मनोज्ञ’ को सौंपकर वह भगवान की शरण में चला गया।
यह कथा हमें सिखाती है कि सफला एकादशी का व्रत कितना शक्तिशाली है। जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करता है, उसे इस लोक में तमाम सुख मिलते हैं और मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत की महिमा को पढ़ने, सुनने और इसके अनुसार आचरण करने मात्र से राजसूय यज्ञ के समान फल मिलता है। अतः अपने जीवन को सार्थक और सफल बनाने के लिए सफला एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।
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