लेखक- विपिन चमोली via NCI
Maa Kalishila : उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले की हिमालयी गोद में है ‘कालीशिला’ एक ऐसा दिव्य और रहस्यमयी स्थल है, जो न सिर्फ भक्तों की आस्था का अटूट केंद्र है बल्कि शक्ति, साधना और प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य का जीवंत संगम भी है। यह पवित्र स्थान समुद्र तल से लगभग 3,463 मीटर (11,362 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है, और इसे देवी मां के सबसे शक्तिशाली सिद्धपीठों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि यह स्थान इतना जाग्रत है कि यहाँ की गई सात्विक साधना साधकों को ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाती है। स्कंद पुराण के केदारखंड में इस स्थान का विस्तार से उल्लेख मिलता है, जो इसकी प्राचीनता और धार्मिक महत्ता को प्रमाणित करता है। कालीमठ मंदिर से लगभग 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई पर स्थित यह विशाल चट्टान, जिसे कालीशिला कहा जाता है, स्वयं महाकाली का भौतिक रूप मानी जाती है। कहा जाता है कि यहीं पर मां भगवती 12 वर्ष की बालिका के रूप में प्रकट हुई थीं और यहीं से उन्होंने दैत्यों – विशेषकर शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज – का संहार करने के लिए महाकाली का विकराल रूप धारण किया था। इस शिला में आज भी मां जगदम्बा के चरणों की अमिट छाप मौजूद है, जो हर श्रद्धालु के लिए साक्षात दर्शन का अनुभव कराती है।
कालीशिला की यात्रा किसी सामान्य ट्रेकिंग से कहीं अधिक श्रद्धा और धैर्य की कठिन परीक्षा है। यह यात्रा रुद्रप्रयाग जिले के कालीमठ से शुरू होती है। कालीमठ स्वयं सरस्वती नदी के पावन तट पर बसा एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है, जहाँ कोई मूर्ति नहीं बल्कि एक कुंड की पूजा की जाती है, जिसमें महाकाली के अंतर्ध्यान होने की मान्यता है। हिमालय के ऊँचे पर्वतों की तीव्र ठंड, बर्फीली हवाओं और खड़ी चढ़ाई के बीच यह दूरी अत्यंत चुनौतीपूर्ण बन जाती है। साधक को हर कदम पर रुकना पड़ता है, साँस फूलती है, शरीर थक जाता है, पर मन में माँ भगवती का स्मरण ही एकमात्र संबल होता है। यही वह क्षण होता है जब भौतिक शक्ति जवाब देने लगती है और आंतरिक श्रद्धा ही साधक को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। साधक के मन में यही भाव रहता है – “माँ ही सब संभाल लेंगी।” सरस्वती नदी को पार करना इस यात्रा का पहला चरण है। नदी पार करने के बाद पहाड़ की चढ़ाई आरंभ होती है, जो शुरुआत में बहुत खड़ी और पथरीली है। संकरी पगडंडियों पर रुक-रुक कर आगे बढ़ना पड़ता है।

लगभग चार किलोमीटर की कठिन चढ़ाई के बाद यात्रा में एक छोटा सा गाँव और एक बाजार आता है। यह स्थान एक पड़ाव का काम करता है, जिसके आगे प्रकृति का सबसे मनमोहक और शुद्ध रूप दिखाई देता है। यहाँ से दूर-दूर तक फैली हरियाली, घाटियों का फैलाव और पर्वतों का मनमोहक सौंदर्य स्पष्ट दिखाई देता है। यह क्षेत्र न सिर्फ प्राकृतिक रूप से सुंदर है बल्कि यह एक तपोभूमि की भावना से भी ओत-प्रोत है, जहाँ सदियों से ऋषियों-मुनियों ने तपस्या की है। यहाँ से आगे लगभग तीन किलोमीटर की ऊँचाई पर आश्रम स्थित है, जिसे स्थानीय मान्यताओं में माँ सरस्वती का निवास भी माना जाता है। यहाँ पहुँचकर यात्री को साधना की गहन अनुभूति होती है। यह आश्रम मां पार्वती की लीलाओं और प्रकृति की गोद में शांति और एकांत का अनुभव कराता है। आश्रम के आस-पास वन्य जीवों की उपस्थिति भी है, लेकिन भक्तजन इसे माँ भवानी की कृपा मानकर निर्भीक रहते हैं। मार्ग में एक प्राचीन देवी मंदिर भी पड़ता है, जिसकी स्थिति देखकर मन में एक अलग भाव आता है , ऐसा लगता है कि यहाँ लंबे समय से पूजा नियमित रूप से नहीं हुई है। यह शायद इस पवित्र स्थल की विरक्ति और साधना प्रधान प्रकृति को दर्शाता है।
आश्रम से आगे की चढ़ाई अधिक पथरीली और चुनौतीपूर्ण हो जाती है। बस्ती समाप्त होने के बाद जंगल का घना विस्तार शुरू होता है। यह अंतिम चढ़ाई अत्यंत कठिन होती है, जहाँ दूरी कम होने पर भी मुश्किलें अधिक होती हैं। सुबह 5:30 बजे शुरू हुई यात्रा के लगभग पाँच घंटे बाद विश्राम मिलता है। इस विश्राम स्थल से कालीशिला के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। पर्वत की सबसे ऊँची पुंगी (शिखर) पर एक काली चट्टान दिखाई देती है, जिस पर माँ का ध्वज लहराता रहता है। इस अद्भुत दृश्य को देखकर यात्री की सारी थकान दूर हो जाती है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि राह में पड़ने वाले पेड़ और विशाल चट्टानों का रंग भी गहरा काला है, मानो पूरा पर्वत ही माँ काली के रंगों में रचा-बसा हो। शिखर पर पहुँचकर यात्री को सामने विशाल कालीशिला के दर्शन होते हैं। यह स्थान स्वाभाविक रूप से ब्रह्म स्वरूप है, लेकिन जब इसे भौतिक रूप में देखा जाता है, तो इसकी विशालता, अलौकिकता और अनूठापन एक गहरा अनुभव कराता है।
🔱 कालीशिला की पौराणिक महत्ता और रहस्य
कालीशिला को मात्र एक चट्टान नहीं, बल्कि माँ जगदम्बा के साक्षात प्राकट्य का स्थल माना जाता है। इसकी पौराणिक महत्ता कई रहस्यों और मान्यताओं से जुड़ी है:
1. जगदम्बा का प्राकट्य और चरण चिह्न
पौराणिक कथाओं के अनुसार, यहीं वह स्थल है, जहाँ माँ जगदम्बा ने 12 वर्ष की बालिका के रूप में प्रकट होकर शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज दैत्यों से त्रस्त देवताओं को आश्वासन दिया था। माना जाता है कि देवताओं की प्रार्थना पर, असुरों के संहार के लिए माँ का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल महाकाली का रूप धारण किया था। सबसे बड़ा रहस्य यह है कि इस शिला पर आज भी जगदम्बा के चरणों की छाप अमिट है। इन चरणों के निशानों पर दो रंग लगाए जाते हैं – लाल और पीला, जिनमें से लाल रंग केवल देवी के चरणों के निशान को दर्शाता है।
2. 64 यंत्र और 64 योगिनियाँ
स्कंद पुराण के अनुसार, कालीशिला पर देवी-देवताओं के 64 यंत्र स्थापित हैं। मान्यता है कि माँ दुर्गा को इन्हीं 64 यंत्रों से शक्ति मिली थी, जिसके बाद उन्होंने दैत्यों का संहार किया। कहा जाता है कि इन 64 यंत्रों की ऊर्जा आज भी इस स्थान पर निवास कर रही 64 योगिनियों में समाहित है। इन योगिनियों का वास इस क्षेत्र को एक असीम और रहस्यमय शक्ति प्रदान करता है।
3. माँ पार्वती की तपस्या और पंचकेदार
माना जाता है कि यह वह पावन भूमि है, जहाँ माँ पार्वती ने भी कठोर तपस्या की थी। शिव पुराण के अनुसार, माँ पार्वती ने हिमालय में करोड़ों वर्षों तक तप किया और यहीं से उन्होंने पहली बार महाकाली का रूप धारण किया। भोलेनाथ की रक्षा के लिए उनके पाँच स्वरूपों को पाँच अलग-अलग पर्वतों पर बैठाया गया, जिन्हें ‘पंचकेदार’ के नाम से जाना जाता है। कालीशिला से हर केदार की दूरी लगभग बराबर है, और वे सभी एक अर्धचंद्राकार में स्थित हैं, जो एक विशेष आध्यात्मिक ज्यामिति (Geometry) का निर्माण करते हैं। आश्रम के नजदीक से यदि बादल न हों तो सुमेर पर्वत, मध्यमहेश्वर और तुंगनाथ जैसे पंचकेदार के शिखर भी दिखाई देते हैं।

कालीशिला की एक और अनूठी विशेषता यह है कि यह स्थल तांत्रिक क्रियाओं का नहीं, बल्कि सदा सात्विक कार्यों का केंद्र रहा है। यहाँ की साधना का अर्थ है हृदय के शुद्ध भाव से भगवती को रिझाना। यहाँ किसी भी प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान या मंत्र-तंत्र नहीं होता है। यह स्थान पूरी तरह से सात्विक पूजा-अर्चना और भजन-कीर्तन के लिए समर्पित है। यहाँ तक कि देवी को दूध भी समर्पित करना हो, तो वह भी कच्चा नहीं, बल्कि गरम किया हुआ होना चाहिए। मंदिर में माँ काली की कोई मूर्ति नहीं है बल्कि एक चौकोर बेदी (स्थान) है, जिसके ऊपर एक छत्र स्थापित है। पुजारी की सेवा इसी बेदी में होती है। प्रसाद में मोटी टिक्कड़ (मोटी रोटी), सब्जी और चावल मिलता है, जो यहाँ की सादगी और सात्विकता को दर्शाता है।
कालीशिला के पास स्थित आश्रम इस दुर्गम स्थल पर साधना और ठहराव का केंद्र है। इस आश्रम की स्थापना आज से लगभग 52 वर्ष पहले बरखा गिरी महाराज जी ने की थी। बरखा गिरी महाराज एक सिद्ध पुरुष थे। उनके बारे में कथाएँ प्रचलित हैं कि 90 वर्ष की उम्र में भी वे पहाड़ के कठिन रास्तों को जहाँ आम लोगों को 6-7 घंटे लगते थे, वहीं वे केवल आधे घंटे में पार कर लेते थे। मार्च 2022 में, 99 वर्ष की आयु में महाराज जी ब्रह्मलीन हुए। वर्तमान में आश्रम की व्यवस्था एक विदुषी सरस्वती मैया देखती हैं, जो जर्मनी की हैं। वह एक संपन्न घर में पैदा हुई थीं, लेकिन सांसारिक जीवन से मुक्ति पाने और साधना के लिए उन्होंने संन्यास लेकर इस तपोभूमि पर अपना जीवन समर्पित कर दिया। क्षेत्र में उनके प्रति अपार श्रद्धा है। आश्रम में एक रात से अधिक ठहरने की व्यवस्था नहीं है। यह नियम साधकों को विरक्ति और अल्प-संग्रह का भाव सिखाता है। शाम के समय, जंगल के जानवरों, विशेषकर भालुओं के डर से सभी आश्रम के जानवरों को अंदर कर दिया जाता है। जंगल के भालुओं की कथाएँ भी आश्रम में सुनाई जाती हैं, जो मानवों के लिए खतरनाक साबित होते हैं। इसके बावजूद, यहाँ की महिलाएँ बेहद साहसी हैं जो रात के अंधेरे में भी अकेले जंगल पार करने का साहस रखती हैं, यह इस भूमि की असीम शक्ति और माँ भवानी की कृपा का प्रमाण है।

कालीशिला की यह यात्रा केवल शरीर की नहीं बल्कि आत्मा की परीक्षा है। मार्ग की कठिनाई, जंगल की रहस्यात्मकता, पर्वतों की ऊँचाई और आश्रम का सात्विक माहौल हर साधक को एक नया जीवन भाव देता है। पर्वत की ऊँचाई को पार कर कालीशिला के शिखर पर पहुँचने का अनुभव अद्वितीय होता है। उसी स्थल पर माँ भवानी, महाकाली और 64 योगिनियों की ऊर्जा का साक्षात अनुभव होता है। कालीशिला में बैठकर साधक का मन माँ भवानी के ध्यान में पूरी तरह से डूब जाता है। यह यात्रा मंत्रमुग्ध कर देने वाली है, जहाँ हर कदम पर प्रकृति की गोद, आस्था का महामिलन और साधना का अद्भुत भाव महसूस होता है। यहाँ पहुँचकर साधक अपने सारे सांसारिक भाव और चिंताएं भूल जाता है, और मन में केवल माँ भगवती की साधना, उनके चरणों की छाप और शक्ति के साक्षात्कार का भाव रह जाता है। कालीशिला में आना, पर्वत की चढ़ाई पार कर, माँ भवानी की अर्चना करना – यह जीवन के सबसे पवित्र क्षणों में से एक होता है। हर साधक को एक बार कालीशिला के इस दिव्य स्थल का दर्शन अवश्य करना चाहिए, ताकि माँ काली की शक्ति, साधना और प्रकृति का अद्भुत संगम महसूस किया जा सके और जीवन में नव ऊर्जा, श्रद्धा और विश्वास का संचार हो सके। यह तपोस्थल अनेक कथाओं, रहस्यों, सिद्ध संतों, साधकों और योगियों की साधना का केंद्र है, जो आज भी अपनी अलौकिक आभा बिखेर रहा है।
Also Read- Madhyamaheshwar Temple Tour: इस जैसा कुछ भी नहीं!











