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Shocking! हवाई जहाज की सफेद लकीरों का राज! Destroying Our Climate!

NCIvimarsh1 month ago

लेखक – रवि बसोया via NCI

Destroying Our Climate!

 हवाई यात्रा निस्संदेह आधुनिक परिवहन के सबसे सुविधाजनक तरीकों में से एक है, लेकिन क्या हम वास्तव में इस बात से अवगत हैं कि यह हमारे पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाती है? विमानों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन यह पूरी समस्या का सिर्फ एक हिस्सा है। असली खतरा वे सफेद लकीरें हैं, जिन्हें हम अक्सर विमान के गुजरने के बाद आसमान में बनते देखते हैं। ये लकीरें मुख्य रूप से 11,000 मीटर की ऊंचाई पर बनती हैं, जहां तापमान बहुत कम होता है। जब इस ऊंचाई पर नमी की मात्रा अधिक हो जाती है, तो इसे “आइस सुपर सैचुरेटेड रीजन” कहा जाता है। इस क्षेत्र में विमान के धुएं के संपर्क में आने पर जलवाष्प बर्फीले क्रिस्टल में बदल जाता है, जिससे “कंडेंसेशन ट्रेल्स” (Contrails) बनती हैं। ये क्रिस्टल 17 घंटे तक आसमान में टिके रह सकते हैं और उसी तरह का प्रभाव डालते हैं जैसा ग्रीनहाउस में लगे कांच की दीवारें करती हैं।

ये कंडेंसेशन ट्रेल्स दिन में सूरज की गर्मी को परावर्तित कर वातावरण को ठंडा रखती हैं, लेकिन रात के समय ये गर्मी को रोककर धरती को गरम बनाए रखती हैं। इस प्रभाव को समझने के लिए एक सरल उदाहरण लिया जा सकता है – यदि सर्दियों में आसमान साफ हो और बादल न हों, तो ठंड अधिक महसूस होती है, लेकिन यदि बादल छाए हों, तो ठंड कम महसूस होती है। इसी तरह, ये सफेद लकीरें रात में गर्मी को रोकने का काम करती हैं और वैश्विक तापमान बढ़ाने में योगदान देती हैं। 2011 में, जर्मनी के एयरोस्पेस संस्थान ने इन कंडेंसेशन ट्रेल्स के तापमान पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया और एक नक्शा तैयार किया, जिसमें उन क्षेत्रों को लाल रंग में दिखाया गया जहां विमानों को उड़ान भरने से बचना चाहिए।

वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि विमानों के उड़ान मार्ग में थोड़ा सा बदलाव किया जाए, तो इन लकीरों के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। आंकड़ों के अनुसार, केवल 20 प्रतिशत उड़ानें ही ऐसी लकीरें बनाती हैं और इनमें से भी सिर्फ 5 प्रतिशत विमान असल में गंभीर जलवायु प्रभाव डालने वाली लकीरें छोड़ते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि सिर्फ 5 प्रतिशत उड़ानों का मार्ग बदला जाए, तो जलवायु पर सकारात्मक प्रभाव डाला जा सकता है। जर्मन एयरोस्पेस सेंटर के वैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की कि क्या इन लकीरों को पूरी तरह से रोका जा सकता है। इसके लिए उन्होंने विमानों को उन क्षेत्रों के ऊपर और नीचे उड़ाकर देखा जहां कंडेंसेशन ट्रेल्स बनती हैं।

उन्होंने “ऑड-ईवन” (Odd-Even) तकनीक अपनाई, जिसमें सम (Even) दिनों पर विमान सामान्य मार्ग पर उड़ते रहे और विषम (Odd) दिनों पर उन्हें सामान्य ऊंचाई से 600 मीटर ऊपर या नीचे उड़ाया गया। इस प्रयोग से पता चला कि जब विमानों ने अपना मार्ग बदला, तो नतीजे सामान्य दिनों की तुलना में काफी अलग थे। वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्हें 97.5 प्रतिशत यकीन है कि उनके द्वारा अपनाए गए उपायों से इन लकीरों को बनने से रोकने में प्रभावी बदलाव किया जा सकता है।

अब सवाल यह उठता है कि एयरलाइंस कंपनियां कब से इन जलवायु-अनुकूल उड़ानों की शुरुआत करेंगी? इस विषय पर विएना के फ्लाइट प्लानिंग एक्सपर्ट रायम सॉप का कहना है कि अब तक फ्लाइट प्लानिंग का मतलब केवल तेज और कम खर्चीला मार्ग निकालना था। लेकिन अब कंपनियां ऐसे मार्गों की भी पहचान कर रही हैं जहां सफेद लकीरें बनने की संभावना अधिक होती है और इसके लिए बेहतर विकल्प सुझा रही हैं। उनकी कंपनी ने 8,500 से अधिक उड़ानों का विश्लेषण किया और पाया कि उड़ान मार्ग में मामूली बदलाव से इन लकीरों को बनने से रोका जा सकता है।

अध्ययन में यह भी सामने आया कि मार्ग बदलने में बहुत अधिक खर्च नहीं आता। यदि कोई एयरलाइन इस तकनीक को अपनाती है, तो उसे केवल 0.1 प्रतिशत अधिक ईंधन खर्च करना होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि यह तरीका केवल 20 प्रतिशत उड़ानों पर भी प्रभावी रहा, तो यह वैश्विक तापमान को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यदि एक यात्री 100 यूरो की टिकट खरीदता है, तो सफेद लकीरों से बचने की कीमत केवल 8 सेंट्स (Euro Cents) होगी, जो जलवायु को बचाने की दृष्टि से एक बेहद मामूली कीमत है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सबसे पहले कौन सी एयरलाइन इस पर्यावरण-अनुकूल तकनीक को अपनाती है।

अंत में, यह स्पष्ट है कि हवाई यात्रा को पूरी तरह से जलवायु के अनुकूल बनाना फिलहाल संभव नहीं है, लेकिन छोटे-छोटे बदलावों से बड़े प्रभाव डाले जा सकते हैं। सरकारों, एयरलाइंस और वैज्ञानिक समुदाय को इस समस्या पर मिलकर काम करना होगा ताकि हम भविष्य में एक स्वच्छ और टिकाऊ पर्यावरण की ओर बढ़ सकें। यदि एयरलाइंस कंपनियां उड़ान मार्ग में बदलाव कर इन सफेद लकीरों को कम करने के उपाय अपनाती हैं, तो यह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अब समय आ गया है कि हम यात्रा के तरीकों को अधिक सतत (Sustainable) बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाएं, ताकि आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और स्वच्छ पर्यावरण मिल सके।

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