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सेना प्रमुख आसिम मुनीर बनेंगे पाकिस्तान के राष्ट्रपति?

NCIvimarshYesterday

पाकिस्तान में राजनीतिक हालात लगातार अस्थिर होते जा रहे हैं। बीते हफ्ते देश के शीर्ष नागरिक और सैन्य नेताओं के बीच हुई ताज़ा मुलाक़ातों ने एक बार फिर से सत्ता-परिवर्तन की अटकलों को तेज़ कर दिया है। चर्चा का केंद्र सेना प्रमुख फील्ड मार्शल आसिम मुनीर हैं, जिनके राष्ट्रपति बनने की संभावना को लेकर अफवाहों का बाज़ार गर्म है। हाल ही में प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सार्वजनिक तौर पर इन अटकलों को खारिज जरूर किया, लेकिन सच्चाई यह है कि लगातार हो रही इन मुलाक़ातों और राजनीतिक उठापटक ने आम जनता और राजनीतिक विश्लेषकों को हैरत में डाल रखा है।

इन बैठकों के बाद एक बार फिर से 27वें संविधान संशोधन को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। कहा जा रहा है कि पर्दे के पीछे कोई बड़ा बदलाव लाने की कोशिश हो रही है, जिसमें संसदीय (parliamentary) व्यवस्था की जगह राष्ट्रपति प्रणाली (presidential system) लाने की संभावना है। सोशल मीडिया पर लगातार यही अफवाह तैर रही है कि ज़रदारी इस्तीफा दे सकते हैं, और उनकी जगह सेना प्रमुख आसिम मुनीर को बैठाया जा सकता है। हालांकि, रक्षा मंत्री ने इन अटकलों को निराधार बताया, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि बैठक में मीडिया रिपोर्ट्स और राष्ट्रपति के इस्तीफे से जुड़ी खबरों पर चर्चा जरूर हुई थी।

पाकिस्तान में यह कोई नई बात नहीं कि सेना और सरकार के रिश्ते में खटास आती रही है। सेना देश की सत्ता-संचालक ताकत रही है और जब-जब सरकार या प्रधानमंत्री कमजोर हुए, सेना ने खुलकर हस्तक्षेप किया या सत्ता अपने हाथ में ले ली। वर्तमान में भी ऐसी ही स्थिति बन रही है जिसमें सरकार, सेना के दबाव में दिख रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि फिलहाल चल रही चर्चाएँ देश के संविधान और शासन ढांचे में आमूल-चूल बदलाव ला सकती हैं, जिसका असर पाकिस्तान के लोकतांत्रिक भविष्य पर भी पड़ सकता है।

राजनीतिक ऊहापोह के बीच विपक्ष भी चुप नहीं बैठा है। पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान भले ही जेल में हों, लेकिन उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ का जन समर्थन कम नहीं हुआ है। पार्टी के नेता और उनके समर्थक अगस्त में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और मार्च की तैयारियों में जुटे हैं। इमरान खान के समर्थकों को सरकार से उम्मीद नहीं, सेना के रवैये से नाराज़गी है और वे लोकतंत्र बचाने की बात कर रहे हैं। इस बीच सरकार आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करने के नाम पर एक नई पैरा-मिलिट्री (paramilitary) फोर्स बना रही है, जिसका मकसद विरोध प्रदर्शनों को दबाना और राजनीतिक असंतोष को काबू करना बताया जा रहा है।

राजधानी इस्लामाबाद सहित देश भर में एक अनिश्चितता का माहौल है। लोग यह जानना चाह रहे हैं कि क्या उनकी संसद और राष्ट्रपति भवन असल में जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में रहेगा या फिर सेना खुलकर सियासी मैदान में उतर आएगी? विश्लेषकों का कहना है कि पाकिस्तान के हालिया हालात स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि सत्ता का केंद्र सिविल सरकार से फिर सेना की ओर शिफ्ट हो रहा है। एक साल पहले हुए आम चुनावों में जब इमरान खान की पार्टी PTI को बैन कर दिया गया, तब से मौजूदा सरकार और सेना के गठजोड़ ने स्थानीय प्रशासन, न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया है।

इन सबके बीच पाकिस्तान ने इसी महीने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भी संभाल ली है। देश के लिए यह अहम मौका है, लेकिन भारत के नजरिए से चिंता बढ़ाने वाला भी, क्योंकि दोनों देशों के बीच हाल ही में कश्मीर को लेकर घातक सीमा संघर्ष हुआ है और दोनों मुल्कों में तनाव चरम पर है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की नजर अब न सिर्फ पाकिस्तान के अंदरूनी बदलावों पर है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता पर भी टिकी है।

पाकिस्तान की राजनीति का इतिहास बताता है कि प्रत्येक बार जब-जब सेना ने सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता में दखल दिया, तब-तब देश के लोकतांत्रिक संस्थानों को धक्का लगा। यदि इस बार संविधान संशोधन या राष्ट्रपति परिवर्तन के चलते सैनिक नेतृत्व मजबूत होता है, तो पाकिस्तान में जन अधिकार, नागरिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के पैमाने एक बार फिर से पीछे छूट सकते हैं।

अगले कुछ हफ्ते पाकिस्तान के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। क्या मौजूदा सरकार और राष्ट्रपति जरदारी अपनी जगह बचा पाएंगे, या फिर पाकिस्तान एक नई राजनीतिक व्यवस्था—शायद पूरी तरह सैन्य नेतृत्व वाली राष्ट्रपति प्रणाली—की ओर बढ़ चलेगा? इस सवाल का जवाब आने वाले समय में पाकिस्तान की जनता, वहां की सियासी जमात और दुनिया को मिल जाएगा। हालांकि अभी के हालात में इतना जरूर कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का भविष्य एक बार फिर तब्दीली के मोड़ पर खड़ा है, और इस बार उसके असर की गूंज सरहद पार भारत तक महसूस की जा सकती है।

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