Dev Uthani Ekadashi 2025 : पूजा विधि, महात्मय और व्रत कथा

By NCI
On: October 30, 2025 2:26 PM

Dev Uthani Ekadashi 2025 : देवउठनी एकादशी जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं, हिन्दू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। इस वर्ष यह पर्व 1 नवंबर 2025 को मनाया जाएगा। देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं, और इस समय से सभी शुभ कार्य, जैसे विवाह, गृह प्रवेश, यज्ञ आदि की शुरुआत होती है। इस पर्व का सम्पूर्ण विवरण, पूजा विधि, पौराणिक महत्व व्रत-विधि, नियम और व्रत कथा नीचे विस्तार से दिया गया है।​

देव उठनी एकादशी व्रत विधि और नियम

इस दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करना चाहिए। स्नान के बाद मन को शुद्ध कर भगवान विष्णु का स्मरण करें और संकल्प लें  “आज मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता हेतु एकादशी व्रत रखूँगी और निष्काम भाव से उपवास करूँगी।” इसके बाद व्रती को स्वच्छ या पीले वस्त्र धारण करने चाहिए और पूजा स्थान को पवित्र करके वहाँ भगवान श्रीहरि विष्णु की मूर्ति या चित्र स्थापित करना चाहिए। यदि घर में शालिग्राम या तुलसी का पौधा हो, तो उन्हें भी साथ में विराजित किया जाता है। पूजा से पहले आसन बिछाकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए और धूप, दीप, अक्षत, पुष्प, चंदन व तुलसी दल से भगवान की विधिवत पूजा करनी चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान विष्णु की पूजा बिना तुलसी के अधूरी मानी जाती है, इसलिए तुलसी दल अवश्य अर्पित करें। दीपक जलाकर भक्ति भाव से प्रार्थना करनी चाहिए  “हे प्रभु! आपने चार महीने तक योगनिद्रा में रहकर सृष्टि की स्थिरता बनाए रखी, अब आप जागृत होकर हमारे जीवन में भी प्रकाश और मंगल भरें।” इसके बाद भगवान को भोग लगाया जाता है, जिसमें फल, पंचामृत, खीर, हलवा या कोई सात्विक वस्तु अर्पित की जा सकती है। अन्न या तामसिक भोजन का प्रयोग वर्जित है। जो निर्जला व्रत नहीं रख सकते, वे फल या दूध का सेवन कर सकते हैं, लेकिन मन, वाणी और आचरण से पूर्ण संयम रखना आवश्यक है। इस दिन किसी भी प्रकार का क्रोध, झूठ या वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। सायंकाल के समय तुलसी विवाह का विशेष महत्व होता है। इस अवसर पर भगवान शालिग्राम या श्रीविष्णु को वर और तुलसी माता को वधू के रूप में सजाया जाता है। दोनों का विधिपूर्वक विवाह कराया जाता है, मंगल गीत गाए जाते हैं और दीपक जलाकर पुष्पों की माला अर्पित की जाती है। विवाह के बाद फल, मिठाई या गुड़-चने का प्रसाद वितरित करना अत्यंत शुभ माना गया है। रात्रि में हरि नाम संकीर्तन, भजन और आरती करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और सभी पाप नष्ट होते हैं। अगले दिन द्वादशी तिथि को ब्राह्मण या जरूरतमंद को दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण किया जाता है। पारण के समय भगवान विष्णु को धन्यवाद देते हुए प्रार्थना करनी चाहिए “हे श्रीहरि, आपके जागरण के साथ मेरे जीवन में भी जागरण हो, मेरे भीतर का अंधकार दूर हो और आपके चरणों में मेरी भक्ति अटूट बनी रहे।” देव उठनी एकादशी का व्रत अत्यंत पुण्यदायक माना गया है। इस दिन किया गया दीपदान सौ यज्ञों के बराबर फल देता है। तुलसी विवाह कराने से कन्यादान के समान पुण्य प्राप्त होता है और भगवान विष्णु की विशेष कृपा बनी रहती है। जो व्यक्ति श्रद्धा और नियमपूर्वक देव उठनी एकादशी का व्रत करता है, उसके जीवन से दुख और संकट दूर होते हैं, और उसे सांसारिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि प्राप्त होती है। यह पावन एकादशी हमें यह सिखाती है कि जैसे भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं, वैसे ही हमें भी अपनी आत्मा को जागृत करना चाहिए। जब मनुष्य अपने भीतर के अंधकार से उठकर सत्य, प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलता है, तभी उसका जीवन सार्थक बनता है यही इस पवित्र एकादशी का सच्चा संदेश है।

देव उठनी एकादशी महात्म्य

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव उठनी एकादशी या प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। यह वही पवित्र दिन है जब भगवान श्रीहरि विष्णु चार महीने की योगनिद्रा से जागते हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन भगवान क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर निद्रा में जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागरण करते हैं। इन चार महीनों को चातुर्मास कहा जाता है। इस अवधि में विवाह, यज्ञ, हवन और अन्य मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं। जब भगवान श्रीहरि जागते हैं, तभी से सभी शुभ कार्यों की पुनः शुरुआत होती है। पुराणों में वर्णन मिलता है कि जब देव उठनी एकादशी का दिन आता है, तो देवता, ऋषि, पितर और संपूर्ण सृष्टि भगवान विष्णु के जागरण से प्रसन्न होकर पुनः सक्रिय हो जाती है। भगवान की यह जागृति केवल देवलोक में नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन में भी आध्यात्मिक जागरण का प्रतीक मानी जाती है। इस दिन की पूजा का अर्थ है अपने भीतर की अज्ञानता और आलस्य से जागकर धर्म, भक्ति और कर्तव्य के मार्ग पर लौटना। देव उठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु और तुलसी माता का विवाह किया जाता है। इस परंपरा के पीछे एक पौराणिक कथा है, एक समय राजा जालंधर की पत्नी वृंदा अपने पतिव्रत धर्म से इतनी शक्तिशाली थीं कि स्वयं देवता भी उनसे भयभीत रहते थे। जब भगवान विष्णु ने जालंधर का वध करने के लिए उसका रूप धारण किया, तो वृंदा ने जब यह जान लिया कि उनके साथ छल हुआ है, उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया “हे विष्णु! तुम भी पत्थर बन जाओ।” इस श्राप से भगवान का शालिग्राम रूप प्रकट हुआ और वृंदा तुलसी के रूप में पूजित हुईं। तब भगवान ने कहा “हे तुलसी, तुम्हारा विवाह मुझसे होगा और तुम्हारे बिना मेरी पूजा अधूरी मानी जाएगी।” इसीलिए देव उठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का आयोजन होता है, जो भगवान विष्णु के जागरण और शुभ कार्यों के आरंभ का प्रतीक है। इस दिन जो भक्त उपवास रखते हैं, वे प्रातःकाल स्नान कर भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र के सामने दीप प्रज्वलित करते हैं और तुलसी दल से पूजा करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि देव उठनी एकादशी का व्रत करने वाला व्यक्ति ब्रह्महत्या जैसे पापों से भी मुक्त हो जाता है। इस दिन दीपदान, तुलसी विवाह, और भगवान विष्णु का भोग लगाना विशेष फलदायक माना गया है। पद्म पुराण और स्कंद पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति इस दिन श्रद्धा और भक्ति से भगवान विष्णु की पूजा करता है, वह वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति करता है। इस दिन भगवान को जागरण मंत्र से उठाया जाता है,  “उठो देवा, बैठो देवा, तुम्हे सुमिरन करूं देवा, चार मास की निद्रा पूरी, अब जागो विष्णु प्यारे देवा।” कहा गया है कि जब-जब मनुष्य भक्ति से भगवान को पुकारता है, तब-तब भगवान अवश्य जागते हैं। देव उठनी एकादशी केवल एक पर्व नहीं बल्कि यह आत्मजागृति का प्रतीक है। जैसे भगवान योगनिद्रा से उठते हैं, वैसे ही हमें भी अपने भीतर की अज्ञानता, अहंकार और आलस्य से उठकर सत्य, धर्म और सदाचार के मार्ग पर चलना चाहिए। देव उठनी एकादशी का यह व्रत मोक्षदायक है, पापों से मुक्ति देने वाला है और जीवन में नए आरंभ का प्रतीक है। इस दिन किया गया एक छोटा-सा सत्कर्म भी हजार गुना फल देता है। जब भगवान विष्णु योगनिद्रा से उठते हैं, तब पूरी सृष्टि में शुभता, ऊर्जा और पवित्रता का संचार होता है। इसलिए यह दिन केवल पूजा का नहीं, बल्कि जागरण का आत्मा के पुनर्जागरण का दिन माना गया है।

देव उठनी एकादशी व्रत कथा

प्राचीन काल में एक धर्मपरायण राजा राज करता था। वह विष्णु भक्त था और अपने राज्य में धर्म और सदाचार को सर्वोपरि मानता था। उसके राज्य में यह नियम था कि हर एकादशी के दिन कोई भी व्यक्ति अन्न ग्रहण नहीं करेगा। एकादशी के दिन सम्पूर्ण राज्य में उपवास और भगवान विष्णु की पूजा होती थी। एक दिन एक दूसरे राज्य का व्यक्ति उस राजा के दरबार में नौकरी मांगने आया। राजा ने उसे अपने महल में काम पर रख लिया, लेकिन एक शर्त रखी कि “एकादशी के दिन राज्य में कोई अन्न ग्रहण नहीं करेगा, सभी केवल फलाहार करेंगे।” उस व्यक्ति ने सहमति दे दी। कुछ दिनों बाद एकादशी का दिन आया। पूरे राज्य में व्रत का वातावरण था। सब लोग भगवान विष्णु की पूजा में लीन थे। उस व्यक्ति ने भी फलाहार किया, लेकिन उसका पेट नहीं भरा। उसे भूख सताने लगी। वह राजा के पास गया और बोला, “महाराज! मैं अन्न के बिना नहीं रह सकता, कृपया मुझे भोजन करने की अनुमति दीजिए।” राजा ने पहले तो मना किया, फिर कहा “अगर तुम व्रत नहीं रख सकते तो किसी निर्जन स्थान पर जाकर भोजन कर लो ताकि दूसरों के व्रत में बाधा न पड़े।” वह व्यक्ति भोजन बनाने के लिए एकांत में चला गया। उसने स्नान किया, भगवान विष्णु की मूर्ति के समक्ष आसन बिछाया और अन्न पकाने लगा। जब सब तैयार हो गया, तब उसने भावपूर्वक कहा  “हे मेरे प्रभु! आइए, आपके लिए अन्न तैयार है, पहले आप भोग लगाइए।” जैसे ही उसने यह कहा, आश्चर्यजनक रूप से भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हो गए। वे चार भुजाओं वाले सुंदर स्वरूप में उसके सामने प्रकट हुए और बोले, “वत्स, तुम्हारा आह्वान सच्चे मन से हुआ है, इसलिए मैं स्वयं तुम्हारे घर भोजन ग्रहण करने आया हूँ।” भगवान ने उसके साथ बैठकर भोजन किया और भोजन समाप्त होने के बाद अंतर्धान हो गए। अगले दिन जब राजा को यह बात पता चली कि भगवान स्वयं उसके सेवक के घर भोजन करने आए थे, तो वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने उस व्यक्ति को बुलाकर कहा, “मुझे यह घटना देखनी है, अगली एकादशी पर मैं छिपकर देखूँगा।” अगली एकादशी आई। उस व्यक्ति ने पहले की तरह स्नान किया, भोजन बनाया और भगवान को बुलाने लगा। लेकिन इस बार भगवान नहीं आए। उसने बार-बार पुकारा, पर कोई उत्तर नहीं मिला। तब वह दुखी होकर बोला “हे प्रभु! यदि आज आप नहीं आए, तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा, क्योंकि आपके बिना इस जीवन का कोई अर्थ नहीं।” यह कहते हुए वह नदी की ओर दौड़ पड़ा और जल में कूदने ही वाला था कि उसी क्षण आकाश में तेज प्रकाश हुआ और भगवान विष्णु प्रकट हो गए। भगवान बोले “वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति की परीक्षा ले रहा था। तुम्हारी अटूट श्रद्धा और सच्चे भाव ने मुझे फिर से यहाँ आने को विवश कर दिया।” यह कहकर भगवान ने उसे अपने विमान में बिठाया और वैकुण्ठ लोक ले गए। यह सब दृश्य राजा ने अपनी आँखों से देखा। वह अत्यंत भावविभोर हो उठा और समझ गया कि व्रत का फल केवल नियमों या बाहरी आडंबरों से नहीं, बल्कि सच्चे मन की भक्ति से मिलता है। राजा ने उसी दिन से पूरे समर्पण भाव से एकादशी व्रत करना आरंभ किया।

ॐ जय जगदीश हरे आरती

ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

जो ध्यावे फल पावे,
दुख बिनसे मन का।
स्वामी दुख बिनसे मन का।
सुख संपत्ति घर आवे,
सुख संपत्ति घर आवे,
कष्ट मिटे तन का॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

मात-पिता तुम मेरे,
शरण गहूँ मैं किसकी।
स्वामी शरण गहूँ मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा,
प्रभु बिन और न दूजा,
आस करूँ मैं जिसकी॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

तुम पूरन परमात्मा,
तुम अन्तर्यामी।
स्वामी तुम अन्तर्यामी।
पारब्रह्म परमेश्वर,
पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सबके स्वामी॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

तुम करुणा के सागर,
तुम पालनकर्ता।
स्वामी तुम पालनकर्ता।
मैं मूरख खल कामी,
मैं सेवक तुम स्वामी
कृपा करो भर्ता॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति।
स्वामी सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय,
प्रभु विधि मिलूँ दयामय
तुमको मैं कुमति॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

विषय-विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा।
स्वामी पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ,
मन की शांति बढ़ाओ
संतन की सेवा॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे॥
ॐ जय जगदीश हरे॥

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