लेखक- विपिन चमोली via NCI
Madhyamaheshwar Temple Tour: यह यात्रा एक अद्भुत अनुभव है, जिसमें हिमालय की वादियों में बसे मध्य महेश्वर और बूढ़ा मध्य महेश्वर मंदिर पहुंचने का अवसर मिलता है। हर किसी की स्मृति में यात्रा के पदचिह्न रहते हैं, लेकिन जब भी कोई भक्त इन पर्वतों के तीर्थों की ओर जाता है, उसकी आत्मा पर वह अनुभव स्थायी छाप छोड़ देता है। जैसे वेदों में ऋचाएं, गीत में छंद, फूलों में सुगंध, धरती पर हरियाली, आकाश में तारे — वैसा ही भाव तीर्थयात्रा में बसता है। द्वितीय केदार की यह यात्रा भी आत्मा की अमूल्य निधि है, जो हर क्षण, हर दृश्य को भीतर अंकित कर देती है। पहाड़, झरने, हिमखंड और हरियाली के मध्य जब-जब भोलेनाथ के दर्शन होते हैं, भक्त बार-बार अपने भीतर लौट जाते हैं, जैसे यह यात्रा उनकी आत्मा को किसी नए रंग में रंग देती है।
यात्रा के आरंभ में प्रस्थान कालिशिला से होता है। फिर रांसी गांव पहुंचा जाता है, जो मध्य महेश्वर का मुख्य प्रवेश द्वारा है। यहीं से पदयात्रा की असली शुरुआत होती है और सर-सर बहती हवा, ऊँचे-ऊँचे पर्वत और पगडंडियों के बीच से भक्तों का कारवां आगे बढ़ता है। मार्ग में वन्तोली आता है, जहां रात के विश्राम की व्यवस्था रहती है। यह गांव पैदल यात्रियों के लिए ठहराव का मुख्य बिंदु है। यात्रा मार्ग पर जगह-जगह छोटे-छोटे गांव हैं, जिनमें बुग्याल यानी पहाड़ी घास के मैदान, चाय की छोटी दुकानें, स्थानीय लोगों की मुस्कानें, पूजा स्थल और स्कूल—यह सब पर्वतीय संस्कृति की झलक दिखाते हैं।
वन टोली नामक स्थान पर पहुंचकर रात बिताने की योजना बनती है। रास्ते में पहाड़ की चढ़ाई, झरने और हरियाली से मन शांत हो जाता है, लेकिन शारीरिक थकावट भी अनुभव होती है। स्थानीय लोग यात्रियों को मार्ग के बारे में समझाते हैं—विशेषकर जंगलों में भालुओं की उपस्थिति के कारण सलाह दी जाती है कि सुबह देर से ही प्रस्थान करें। आगे वन टोली में स्थानीय लोगों की सहायता से रात्रि विश्राम किया जाता है। आस-पास के लोग आपस में अपनापन महसूस कराते हैं। वहीं कुछ युवा अन्य क्षेत्रों से आए होते हैं, जिनकी बातचीत में विविधता होती है। स्थानीय दुकानदार यात्रियों को रुकने की जगह, गर्म चाय और भोजन उपलब्ध कराते हैं।

सुबह जल्दी उठकर मध्य महेश्वर के लिए फिर से पदयात्रा आरंभ होती है। ठंड के बावजूद श्रद्धा का उत्साह कायम रहता है। अधिकतर यात्री पैदल ही यात्रा करते हैं क्योंकि मार्ग कठिन है और यहां पालकी, घोड़े या अन्य वाहनों की सुविधा लगभग नहीं के बराबर है। यह पंचकेदारों में दूसरा सबसे कठिन मार्ग माना जाता है, खासकर मध्य महेश्वर और रुद्रनाथ के रास्ते। कम यात्री यहां तक पहुंचते हैं, इसी कारण यह स्थान शांत और शुद्ध रहता है। मार्ग के बीच-बीच में बुरांश के फूलों का रस मिलता है, जिसे पीकर ताजगी महसूस होती है। वन विभाग के लोग झूला पुल पार कराने और पर्यटकों की पहचान पत्र की जांच करते हैं। आगे चलकर नानू गांव पड़ता है, जहां स्थानीय माताजी तीर्थयात्रियों के लिए चाय और नाश्ते की व्यवस्था करती हैं। यहां से मध्य महेश्वर मंदिर की दूरी लगभग चार किलोमीटर रह जाती है। रास्ता ऊपर की ओर जाता है और हिमालय की चोटियां निकट से दिखाई देती हैं। बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखला और हरियाली का सम्मोहन भक्ति में नई अनुभूति जोड़ता है। कभी-कभी लगता है जैसे ये हिमशिखर अपनी छाया में साधना के लिए बुला रहे हैं।
चढ़ाई के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते-पहुंचते समुद्रतल से 3497 मीटर की ऊंचाई पर मध्य महेश्वर मंदिर के दर्शन होते हैं। मंदिर के चारों ओर ऊँचे पर्वत, कुछ पर बर्फ की सफेद चादर लिपटी हुई, बाकी हरियाली से ढंके हुए। मंदिर परिसर में केवल 15–20 घर हैं और बदरीनाथ ट्रस्ट का गेस्ट हाउस भी स्थित है। मुख्य पुजारी को रावल कहा जाता है, दक्षिण भारत से आते हैं और आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वाह करते हैं। गर्भगृह तक केवल मुख्य पुजारी ही प्रवेश करते हैं, बाकी लोग मंदिर के प्रांगण में भोलेनाथ के दर्शन करते हैं। यहां मंदिर के पास गोमुख की झरना बहती है, जहां से जल लेकर भोलेनाथ को अर्पित किया जाता है। प्रत्येक भक्त को एक तांबे का कलश दिया जाता है, जिससे वह जल लेकर अभिषेक करता है। भोग पूजा के बाद प्रसाद स्वरूप पुष्प दिए जाते हैं, और विशेष उत्सव पर श्रंगार और भोग की विशेष व्यवस्था की जाती है।
मंदिर की पूजा पद्धति प्राचीन परंपराओं के अनुसार संपन्न होती है। जब भोग पूजा होती है, तब मंदिर बंद कर दिया जाता है और संध्याकाल तक पट नहीं खोले जाते। स्थानीय गांव पवार समुदाय के लोग पूरी व्यवस्था संभालते हैं। गांव में लगभग 40–45 परिवार हैं, जिसमें से 11 लोग मंदिर की सेवा में नियुक्त रहते हैं। पंचकेदारों में द्वितीय केदार यही है। शिवलिंग का स्वरूप अद्भुत है, कहते हैं यह भगवान शिव की नाभि है। स्नान के बाद मिट्टी से बने शिवलिंग के दर्शन होते हैं, जिनका आकार बिल्कुल नवजात शिशु की नाभि जैसा है। श्रृंगार के समय रजत आभूषणों से सुसज्जित कर भगवान का भोग लगाया जाता है। उसके पश्चात भक्तों को भोग का प्रसाद प्राप्त होता है।
अब अगला मार्ग बूढ़ा मध्य महेश्वर का है, जहां पहुंचने के लिए एक पर्वत पार करना पड़ता है। रास्ते में सुंदर घास के मैदान, बुग्याल, विभिन्न रंगों के पुष्प मिलते हैं। कभी-कभी गायें भी अपनी चहलकदमी से मार्ग को जीवन्त बना देती हैं। बूढ़ा मध्य महेश्वर मंदिर छोटा और शांत स्थान है, जहां केवल भोग के समय भोलेनाथ की पूजा होती है। वहां का वातावरण अत्यंत पवित्र, शांत और ध्यानमग्न करता है। इस स्थान से हिमालय की शृंखलाएं, बर्फबारी, बादलों के बदलते रंग देखने को मिलते हैं। घाटियों में बैठकर साधक श्रद्धा में खो जाता है, जैसे भगवान शिव ने अपने लिए यही स्थान चयनित किया हो ताकि ध्यान, साधना और समाधि की पूर्ण अनुभूति प्राप्त हो। इस यात्रा के दौरान अनेक पौराणिक कथाएं भी सुनने को मिलती हैं। ऐसा माना जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने अपने वनवास के दौरान इसी रास्ते से होकर बद्री विशाल के लिए प्रस्थान किया था। बूढ़ा मध्य महेश्वर से लगभग 22 किलोमीटर दूर, 5000 फुट की ऊंचाई पर एक विस्तृत शेर यानी मैदान है, जहां वर्षा ऋतु के पश्चात विशेष प्रकार की घास उगती है। स्थानीय मान्यता के अनुसार यही ‘पांडव शेर’ कहा जाता है, जहां पांडवों ने अपनी सवारी को विश्राम दिया, भजन किए और घास उगाई थी। मैदान के मध्य बहता नाला भी लोक कथाओं से जुड़ा हुआ है—कहते हैं पांडवों ने इस नाले में भूमिगत जल को शेर हेतु प्रवाहित किया, ताकि आवश्यकतानुसार घास की सिंचाई हो सके। आज भी उस मैदान में हर वर्ष विशेष घास उगती है और अपने आप ही समय आने पर धरती में विलीन हो जाती है।

इन बुग्यालों और पर्वतों की रमणीयता अनुपम है। कभी लगता है कि यही जगह साधना के लिए सर्वोत्तम है—जिस स्थान पर बैठें, वहां से परमज्ञान और ध्यान के द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं। स्वयं से जुड़ने का, ईश्वर के करीब जाने का अनुभव होता है। बूढ़ा मध्य महेश्वर की यात्रा साधक में पूर्ण समर्पण, भक्ति और शिवत्व की अनुभूति कराती है। प्रकृति और पर्वतों की गोद में बैठा यह शांत तीर्थ भक्तों की अंतरात्मा को स्पर्श करता है, जहां साधारण सा भक्त भी शिव के सानिध्य में अपने अस्तित्व का बोध करता है। इन पर्वतीय मार्गों पर चलना केवल शरीर की परीक्षा नहीं, बल्कि मन, आत्मा और आस्था की भी परीक्षा है। यात्रा का समापन वंतोली गांव तक वापसी के साथ होता है, जहां फिर से ठहरने की जगह, भोजन और विश्राम का प्रबंध मिलता है। उतराई पर चलते-चलते ध्यान जाता है कि इन पहाड़ियों की ढलान हमें कैसे साधना सिखाती है। ऊपर जाने में कठिनाई होती है, पर उतरने में भी संतुलन और सावधानी आवश्यक है, जीवन की तरह ही यहां भी भगवान के भरोसे स्वयं को छोड़ कर समर्पण का भाव जगता है। विश्राम के समय शिव की स्तुति, भजन, और रात की नींद के बाद यात्रा पूरी होती है।
मध्य महेश्वर और बूढ़ा मध्य महेश्वर की यह यात्रा न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि आत्मिक शांति, साधना और हिमालय की प्राकृतिक छटा का अनुभव भी कराती है। रुद्रप्रयाग जिले में स्थित यह द्वितीय केदार ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर और रांसी गांव होते हुए सुलभता से पहुंचा जा सकता है। रेलवे स्टेशन ऋषिकेश है, निकटतम हवाई अड्डा देहरादून तथा पद यात्रा के लिए रांसी से लगभग 16 किलोमीटर का पैदल मार्ग। मार्ग में होमस्टे, चाय की दुकानें, घर, स्थानीय भोजन उपलब्ध रहता है, जिससे यात्रियों को कोई विशेष असुविधा नहीं होती। यहां शीतकाल में छह महीनों तक दोनों केदार केदारनाथ और मध्य महेश्वर की मूर्तियां तथा पूजन विद्या शीतकालीन गड्डी के रूप में रखी जाती हैं, जब पहाड़ों पर बर्फ जम जाती है। उस समय पूजा रुद्रप्रयाग के ओंकारेश्वर मंदिर या गुप्तकाशी आदि स्थानों में होती है। महाराज मांधाता की तपोस्थली, भगवान ओंकारेश्वर, भगवान चंद्रदेव, मानसून पहाड़ी और आसपास के अन्य पौराणिक स्थल भी यात्रा मार्ग में आते हैं।
मध्य महेश्वर, बूढ़ा मध्य महेश्वर और आसपास की पर्वत श्रृंखलाएं साधकों, घुमक्कड़ों और श्रद्धालु यात्रियों के लिए किसी स्वर्गिक स्थल से कम नहीं हैं। प्रतिवर्ष यहां सीमित संख्या में यात्री पहुंचते हैं, जो प्राचीन परंपरा, अद्वितीय वास्तु और हिमालय की विराटता से अभिभूत हो जाते हैं। प्रकृति के संगीत, भोलेनाथ के सान्निध्य, और आत्मिक शांति की खोज में यह यात्रा भक्तों को भीतर तक झंकृत कर जाती है—जैसे हर क्षण एक नया पाठ सिखाती है, हर कदम श्रद्धा का विस्तार करता है। यह तीर्थयात्रा हिमालय के विराट ह्रदय और शिव की अपार महिमा का दृश्य रूप है, जो न केवल धर्म, बल्कि व्यक्तिगत साधना, आस्था और प्रकृति प्रेम की भी सर्वोच्च मिसाल है।
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