लेखक- विपिन चमोली via NCI
हिमालय की गोद में बसा कल्पेश्वर महादेव (kalpeshwar mahadev) एक ऐसी दिव्य स्थली है जहां श्रद्धा, भक्ति और प्रकृति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। पंचकेदार श्रंखला का यह अंतिम पड़ाव है और यह देवभूमि उत्तराखंड के चमोली जिले के गोपेश्वर क्षेत्र में स्थित है। कथा कहती है कि महाभारत के युद्ध के बाद जब पांडवों पर भ्रातृहत्यारोप और ब्रह्महत्या का पाप लगा, तब उन्होंने भगवान शिव से क्षमादान पाने के लिए हिमालय की ओर रुख किया। शिव उनसे अप्रसन्न होकर भैंसे या बैल के रूप में प्रकट हुए और अंततः उनके अंग पांच प्रमुख स्थलों पर प्रकट हुए — केदारनाथ, मध्यमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और अंत में कल्पेश्वर, जहां भगवान की जटाएं स्थित मानी जाती हैं।
कल्पेश्वर की ओर जब आप आगे बढ़ेंगे तो पाएंगे की उद्गम घाटियाँ आती जा रही है। इस घाटी का नाम अपने आप में अर्थपूर्ण है — उद्गम, यानी हृदय से गमन। संस्कृत में ‘उद्गम’ का अर्थ हृदयगत यात्रा से है और वास्तव में यह घाटी साधक के अंतःकरण की यात्रा का प्रतीक बन जाती है। माना जाता है कि प्राचीन समय में यह घाटी सर्पों का निवास स्थान रही होगी इसलिए इसे अरग घाटी भी कहा जाता है। यहां चढ़ाई खड़ी है और मार्ग कठिन, परंतु यह कठिनाई ही दिव्यता का प्रवेश द्वार है।
घाटी के बीच बहती कल्प गंगा (Kalp Ganga) नदी, जिसे स्कंद पुराण के केदारखंड में हिरण्यमती नदी भी कहा गया है, इस स्थल की जीवनरेखा है। झूला पुल (hanging bridge) के माध्यम से इसे पार करते समय ऐसा अनुभव होता है जैसे मनुष्य भौतिक और आध्यात्मिक अनुभूति को महसूस करते हुए बीच से गुजर रहा हों। हवा में गूंजता नदी के जल का संगीत और पर्वतीय वनों की सघनता इस अनुभव को और भी अलौकिक बना देती है।
कल्पेश्वर मंदिर तक का अंतिम मार्ग अत्यंत मनोहर है। यहां पहुंचने पर विशाल चट्टानें और पहाड़ के भीतर प्राकृतिक रूप से बने शिवलिंग के दर्शन होते हैं। यह शिवलिंग विशेष है — यह भूमि से जुड़ा हुआ है और यही कारण है की इसकी पूजा खड़े होकर की जाती है। पहाड़ का ही एक हिस्सा भगवान शिव की जटाओं का प्रतीक है, जिसके नीचे एक पवित्र गुफा है। इस गुफा से पानी बूंद-बूंद टपकता रहता है, जिसे स्वयं भगवान शंकर की जटाओं से गिरता हुआ माना जाता है। यही जल मंदिर का प्रसाद तैयार करने में उपयोग होता है। किंवदंती के अनुसार, देवताओं ने यहीं भगवान शिव से समुद्र मंथन में सहायता की प्रार्थना की थी। शिव ने इसी पवित्र जल से देवताओं को संकल्प कराया था। कुछ मान्यताओं के अनुसार यही जल भगवान के तीसरे नेत्र से निकला था। मंदिर के निकट ही एक छोटा सा कुंड है, जिसमें गिरता हुआ यह पवित्र जल सदैव प्रवाहित रहता है। इसी जल को ‘शिव जटा जल’ कहा जाता है। भक्त मानते हैं कि इस जल का स्पर्श करने भर से उनके सभी पाप (sins) धुल जाते हैं।
मंदिर का वातावरण अन्य केदारों से भिन्न है — यहाँ न तो अत्यधिक ठंड पड़ती है और न ही यह स्थल शीतकाल में बंद होता है। यहीं भगवान बारह माह विराजते हैं, इसलिए इनके पट वर्षभर खुले रहते हैं। यह विशेषता कल्पेश्वर को अद्वितीय बनाती है। यहाँ के पुजारी क्षत्रिय नेगी परिवार से हैं, जिनके पूर्वज पूर्व में ब्राह्मण थे। जानकारी लेने पर पता चल की अंग्रेज शासनकाल में जब सेना में भर्ती होने की अनुमति ब्राह्मणों को नहीं थी, तब कुछ परिवारों ने क्षत्रिय वर्ण धारण कर लिया था। यद्यपि यह परिवर्तन सामाजिक था, पूजा-अर्चना की परंपरा आज तक वैसी ही चली आ रही है।
कल्पेश्वर नाम की उत्पत्ति को लेकर कई मान्यताएं हैं। कहा जाता है कि अत्रि ऋषि और माता अनुसूया के पुत्र दुर्वासा मुनि ने कल्पवृक्ष के नीचे यहां तपस्या की थी। इसी कारण यह स्थान कल्पेश्वर कहलाया। एक अन्य कथा के अनुसार, देवताओं के राजा इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने के लिए यहां भगवान शिव की आराधना की थी और उन्हें कल्पवृक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसलिए यह स्थान कल्पेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन होते हैं, जो मन को अद्भुत शांति प्रदान करते हैं। वातावरण में हर-हर शंभू की गूंज, बेलपत्र और चंदन की सुगंध और वनों की हरियाली ऐसा अनुभव कराती है जैसे आप एक अलग ही लोक मे आ गए हो और मन की शांति के बारे मे तो वर्णन कर ही नहीं सकते ये तो स्वयं के अनुभव की बात है । यहां का वातावरण सुबह और संध्या दोनों समय अत्यंत रमणीय (divine serenity) होता है। सूर्य की किरणें जब कप गंगा के जल पर पड़ती हैं तो वह तरल स्वर्ण बन जाती है। आरती के समय डमरू, घंटा और शंखनाद की ध्वनि संपूर्ण घाटी में गूंज उठती है।
शास्त्रों में वर्णित पंचकेदार की कथा के अनुसार, केदारनाथ में भगवान शिव का पृष्ठ भाग, मध्यमहेश्वर में उनकी नाभि, तुंगनाथ में भुजाएं, रुद्रनाथ में मुख और कल्पेश्वर में जटाएं प्रतिष्ठित हैं। इन सभी के दर्शन करने वाला साधक (devotee) भगवान शिव का पूर्ण रूप देखने का लाभ पाता है। कल्पेश्वर न केवल शिव का बल्कि विष्णु की आराधना का भी स्थल है। कल्प घाटी मे स्थित या मंदिर हरि और हर के मिलन का प्रतीक है। स्कंद पुराण के अनुसार, यहीं भगवान शिव अपने भक्तों को हरि यानी विष्णु की भक्ति सौंपते हैं। इस कारण यह स्थान महादेव और हरि दोनों की कृपा से पूरित माना जाता है।
कल्पेश्वर धाम तक पहुँचना सरल नहीं है। हरिद्वार से शुरू करके ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग और गोपेश्वर होते हुए हेलंग तक पहुँचना होता है। यहां से अलकनंदा नदी को पार कर 10-15 किलोमीटर का पहाड़ी मार्ग तय करके देवग्राम होते हुए कल्पेश्वर पहुँचा जा सकता है। पहाड़ के रास्तों में मिलने वाले ग्राम (rural) जीवन, लोगों की सादगी तथा उनके भावनात्मक स्वागत से यात्रा का हर पल आनंदमय बन जाता है।
यहां का मौसम सामान्य रूप से सुहावना (pleasant) रहता है। दिन में धूप तेज होती है, लेकिन रातें ठंडी और शांत होती हैं। आसपास के गांवों के लोग अत्यंत श्रद्धालु हैं, जो यात्रियों के स्वागत और मदद में सदैव तत्पर रहते हैं। कल्पेश्वर की संध्या आरती विशेष महत्व रखती है। आरती में सम्मिलित होने वाले ग्रामीण और साधुजन मिलकर भक्ति संगीत (devotional rhythm) के माध्यम से दिव्यता की अनुभूति कराते हैं।
यात्रा के अंत में श्रद्धालु जब पंचकेदारों की कथा को स्मरण करता है, तो मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि प्रत्येक केदार मानव जीवन के पांच तत्वों (five elements) — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — का प्रतीक है। कल्पेश्वर में आकर साधक मन, वाणी और कर्म से पूर्ण रूप से शिव में विलीन (merged) हो जाता है। कल्पेश्वर की यह यात्रा केवल एक पर्वतीय मार्ग की चुनौती नहीं, बल्कि आत्मोद्धार (self-realization) की एक साधना है। जो व्यक्ति यहां पहुंचता है, उसके भीतर का अहंकार पिघलकर विनम्रता में बदल जाता है और वह अनुभव करता है कि परमात्मा दूर नहीं, बल्कि उसी के भीतर विराजमान है। देवभूमि में बसे इस पंचम केदार का दर्शन करने के बाद लगता है जैसे सृष्टि स्वयं भक्त की तपस्या का उत्तर बन गई हो, ऐसा ही अनुभव हमे बद्रीनाथ मे भी हुआ था लेकिन उसकी चर्चा फिर किसी लेख मे करेंगे। कल्पेश्वर मे भक्तों के हर श्वास से “हर हर महादेव” का स्वर गूंजता है और हर कण से शिव का आशीर्वाद मिलता है।