दया करना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण माना जाता है, लेकिन क्या हर परिस्थिति में दया करना सही है? हमारे धर्म और इतिहास का गहरा विश्लेषण करने पर यह समझ आता है कि दया केवल उसी पर करनी चाहिए जो दया का पात्र हो। जो व्यक्ति दया के योग्य न हो, उस पर दया करना स्वयं के विनाश का कारण बन सकता है। यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति पर दया करते हैं जो इसका सम्मान नहीं करता, तो अंततः नुकसान आपका ही होगा। इतिहास गवाह है कि दया की अति करना भी कायरता का रूप ले सकती है। इसलिए, जीवन में यह समझना बहुत आवश्यक है कि कब हमें उदार होना है और कब हमें कठोर निर्णय लेने हैं। दया उतनी ही करनी चाहिए जितनी आवश्यकता हो; इतनी अधिक दया न करें कि वह आपकी कमजोरी बन जाए और आपके परिवार या समाज के लिए संकट खड़ा कर दे।
ऐतिहासिक भूल: पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी का उदाहरण
इतिहास के पन्नों में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी का प्रसंग हमें बहुत बड़ी सीख देता है। पृथ्वीराज चौहान ने युद्ध में मोहम्मद गौरी को लगभग 16-17 बार हराया और हर बार अपनी उदारता दिखाते हुए उसे क्षमा कर दिया। उन्होंने सोचा कि शत्रु को जीवनदान देना वीर का धर्म है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या गौरी दया का पात्र था? जब स्थिति पलटी और मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को एक बार पकड़ लिया, तो क्या उसने एक बार भी क्षमा किया? नहीं। उसने पृथ्वीराज की आँखों को फोड़ दिया और उन्हें अमानवीय यातनाएं दीं। यहाँ पृथ्वीराज चौहान की दया ही उनके पतन का कारण बनी। उन्होंने दया की अति कर दी थी। एक बार छोड़ना समझ आता है, दो बार भी ठीक है, लेकिन जो शत्रु बार-बार आपकी हत्या करने आ रहा हो, जिसकी वजह से आपकी सेना के सैनिक मारे जा रहे हों, उसे बार-बार छोड़ना धर्म नहीं, बल्कि आत्मघाती कदम है। उस अत्यधिक दया का परिणाम यह हुआ कि न केवल पृथ्वीराज को अपने प्राण गंवाने पड़े, बल्कि उनकी पत्नी संयोगिता को भी जौहर की आग में जलना पड़ा। यदि समय रहते शत्रु का अंत कर दिया जाता, तो इतिहास कुछ और होता।
महाभारत का धर्म: अधर्मी के साथ अधर्म ही न्याय है
महाभारत के युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से हमें सिखाया है कि युद्ध और जीवन में व्यावहारिकता क्या है। जब कर्ण का रथ का पहिया जमीन में धंस गया और वह उसे निकालने के लिए नीचे उतरा, तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन को आदेश दिया कि कर्ण का वध कर दो। अर्जुन ने इसे अधर्म माना और कहा कि निहत्थे और मुसीबत में फंसे योद्धा पर वार करना नियमों के विरुद्ध है। तब भगवान ने अर्जुन को याद दिलाया कि क्या कर्ण ने उस समय धर्म का पालन किया था जब भरी सभा में द्रौपदी का अपमान हो रहा था? उस समय कर्ण ने ही कहा था कि “द्रौपदी, तेरे पांच पति हैं, छठा मुझे बना ले, इसमें तेरा क्या बिगड़ेगा।” जब कर्ण ने उस समय धर्म की भाषा नहीं समझी, तो आज उसके साथ धर्म का पालन क्यों किया जाए? कृष्ण की नीति स्पष्ट है—अधर्मी को अधर्म से मारना ही धर्म है। यदि सामने वाला व्यक्ति धर्म और नियमों को मानता है, तो आप उसके साथ धर्म का पालन करें, लेकिन जो व्यक्ति धर्म की भाषा समझता ही नहीं, उसके साथ नियमों में बंधे रहना मूर्खता है। जैसे कांटे को निकालने के लिए कांटे का ही प्रयोग किया जाता है, वैसे ही अधर्म को काटने के लिए कई बार कड़े और कूटनीतिक कदम उठाने पड़ते हैं।
झूठ और सच का द्वंद्व: अश्वत्थामा की मृत्यु का प्रसंग
सत्य बोलना पुण्य है, लेकिन कई बार लोक कल्याण के लिए बोला गया झूठ भी पुण्य बन जाता है। महाभारत में एक समय ऐसा आया जब गुरु द्रोणाचार्य पांडवों की सेना का संहार कर रहे थे। वे युद्ध के नियमों के विरुद्ध जाकर उन सैनिकों को भी मार रहे थे जो थककर विश्राम कर रहे थे। यह पूर्णतः अधर्म था। द्रोणाचार्य वही थे जिन्होंने एकलव्य से अंगूठा मांगकर अधर्म किया था और अभिमन्यु वध के समय भी चुप रहे थे। ऐसे में भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर से झूठ बुलवाया कि “अश्वत्थामा मारा गया।” युधिष्ठिर के मुख से यह बात निकलवाने के लिए एक अश्वत्थामा नाम का हाथी मारा गया। जब युधिष्ठिर ने कहा “अश्वत्थामा मारा गया,” तो भगवान ने शंख बजा दिया जिससे द्रोणाचार्य आगे के शब्द “नरो वा कुंजरो वा” (नर या हाथी) नहीं सुन सके। उन्होंने पुत्र शोक में हथियार डाल दिए और उनका अंत हुआ। यहाँ झूठ बोलना इसलिए आवश्यक था क्योंकि सच उस समय अधर्म को रोकने में असमर्थ था। सच हमेशा सच के लिए होता है, लेकिन जब सामने वाला छल कर रहा हो, तो सत्य की रक्षा के लिए कूटनीति का सहारा लेना पड़ता है।
सत्य की विवशता और समय का चक्र
अक्सर हम देखते हैं कि अदालतों में या जीवन में कई बार सच हार जाता है और झूठ जीत जाता है। इसका कारण यह है कि सच की लड़ाई झूठ से नहीं हो सकती। सच को समझने के लिए सामने वाले का भी सच्चा या समझदार होना जरूरी है। उदाहरण के लिए, यदि एक पुत्र अपने पिता से नाराज होकर उन्हें गोली मार दे, तो वहां पिता का सत्य हार जाएगा क्योंकि पुत्र कुतर्क और हिंसा पर उतर आया है। रावण को समझाने के लिए हनुमान जी, अंगद और विभीषण जैसे ज्ञानी गए, लेकिन रावण नहीं समझा क्योंकि वह असत्य और अहंकार में डूबा था। हनुमान जी जैसा सत्य भी रावण को समझाकर नहीं जीत पाया और खाली हाथ लौटा। ऐसे समय में जब आपकी बात कोई न समझे, जब सामने वाला अधर्म की पराकाष्ठा पर हो, तो चुप हो जाना ही बेहतर है। रहीम दास जी ने भी कहा है कि “रहिमन चुप ह्वै बैठिये, देखि दिनन के फेर।” जब समय खराब हो, तो मौन धारण करें और ईश्वर पर भरोसा रखें। रावण और दुर्योधन जैसे झूठों की जीत तात्कालिक होती है। अंत में विजय सत्य और धर्म की ही होती है, लेकिन उस विजय के लिए धैर्य और सही समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जो कार्य मनुष्य के बस में न हो, उसे ईश्वर के न्याय पर छोड़ देना चाहिए।













