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Men Are Victims Too! : पुरुष भी हैं पीड़ित!

NCIRNvimarsh3 months ago

Men Are Victims Too!

समाज में समय-समय पर कई तरह के आंदोलनों ने जन्म लिया है, जिसमें नारीवाद (फेमिनिज्म) एक प्रमुख आंदोलन रहा है। यह आंदोलन महिलाओं के अधिकारों, उनके सम्मान और उनके साथ हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए शुरू किया गया था। लेकिन इसी के समानांतर, अब पुरुषों के अधिकारों को लेकर भी एक नई बहस छिड़ गई है, जिसे मेंनिनिज्म कहा जा रहा है। यह एक ऐसा विचार है जो समाज में पुरुषों के साथ होने वाले भेदभाव और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाता है। हाल ही में भारत में पुरुष अधिकार कार्यकर्ताओं ने अपने अंडरवियर जलाकर एक अनूठे विरोध प्रदर्शन (protest) किया, जिससे यह आंदोलन और तेज़ हो गया है।

समाज में लंबे समय से यह धारणा बनी हुई है कि पुरुष हमेशा सशक्त होते हैं, वे कमजोर नहीं होते, वे भावनात्मक नहीं होते, और वे हमेशा अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाने के लिए बने होते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि पुरुष भी मानसिक तनाव, सामाजिक भेदभाव और कानूनी शोषण (legal exploitation) का शिकार होते हैं। कई बार समाज में पुरुषों को सुना ही नहीं जाता और उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। पुरुष अधिकार कार्यकर्ता इस बात पर जोर देते हैं कि अगर महिलाओं के लिए अधिकारों की लड़ाई लड़ी जा सकती है तो पुरुषों के अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए।

हाल ही में सामने आए कुछ मामलों ने इस बहस को और तेज कर दिया है। कई पुरुष ऐसे हैं जो झूठे आरोपों का शिकार हो जाते हैं। घरेलू हिंसा (domestic violence) और दहेज प्रताड़ना (dowry harassment) से जुड़े कानूनों का दुरुपयोग (misuse) कर कई पुरुषों को कानूनी लड़ाइयों में उलझा दिया जाता है। पुरुष अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि महिलाओं की तरह पुरुषों को भी न्याय (justice) मिलना चाहिए और कानून को निष्पक्ष (neutral) होना चाहिए। एक चर्चित मामला दिल्ली का है, जहां एक युवक को एक लड़की ने छेड़छाड़ के झूठे आरोप में फंसा दिया। बाद में जब सच्चाई सामने आई तो उस युवक की ज़िंदगी बर्बाद हो चुकी थी। पांच साल तक उसने कोर्ट के चक्कर काटे, जबकि लड़की विदेश में अपनी नई जिंदगी बसा चुकी थी।

भारत में 498A जैसे कानूनों का गलत इस्तेमाल पुरुषों के खिलाफ हथियार की तरह किया जाता है। यह कानून दहेज उत्पीड़न के खिलाफ बनाया गया था, लेकिन आज इसका दुरुपयोग कर पुरुषों और उनके परिवार को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है। बुजुर्ग माता-पिता को भी जेल जाना पड़ता है और पूरा परिवार बदनामी झेलता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पुरुषों के लिए भी कोई ऐसा कानून नहीं होना चाहिए जो उन्हें झूठे मामलों से बचा सके? क्या ऐसा कोई नियम नहीं होना चाहिए जिससे अगर कोई महिला झूठा आरोप लगाए तो उसे भी सख्त सजा मिले?

आज सोशल मीडिया (social media) पर मेंस राइट्स (men’s rights) को लेकर बड़े पैमाने पर चर्चा हो रही है। कई समूह (groups) और संगठन (organizations) इस विषय पर आवाज़ उठा रहे हैं। ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन’ (SIFF) जैसे संगठनों ने पुरुषों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया है और वे मांग कर रहे हैं कि जेंडर न्यूट्रल (gender neutral) कानून बनाए जाएं। यानी कोई भी कानून केवल महिलाओं या पुरुषों के पक्ष में न हो, बल्कि दोनों को समान रूप से न्याय मिले।

कुछ समय पहले प्रसिद्ध विचारक जॉर्डन पीटरसन (Jordan Peterson) ने भी इस विषय पर अपनी राय रखी थी। उनका कहना था कि समाज में पुरुषों को लेकर एक अजीब धारणा बना दी गई है कि वे हमेशा ‘प्रिविलेज्ड’ (privileged) होते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि कई बार पुरुषों को भी सामाजिक, मानसिक और कानूनी स्तर पर बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने अपनी किताब ‘12 रूल्स फॉर लाइफ’ (12 Rules for Life) में बताया है कि किस तरह पुरुष भी समाज में पीड़ित हो सकते हैं और उन्हें भी समान अधिकार मिलने चाहिए।

भारत में इस आंदोलन के बढ़ने के पीछे कई कारण हैं। हाल के वर्षों में पुरुषों की आत्महत्या (suicide) के मामले बढ़े हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, भारत में आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा संख्या पुरुषों की है। उनमें से कई आत्महत्याओं का कारण वैवाहिक (marital) तनाव और झूठे कानूनी मामले होते हैं। अतुल सुभाष और पुनीत खुराना जैसे लोगों की आत्महत्या इसका उदाहरण है, जिनकी ज़िंदगी झूठे मामलों के कारण बर्बाद हो गई।

इस मुद्दे पर बहस इसलिए भी तेज हो गई है क्योंकि समाज में पुरुषों की भूमिका को लेकर एक नया दृष्टिकोण (perspective) उभर रहा है। पहले यह माना जाता था कि पुरुष ही परिवार का पालन-पोषण करते हैं, लेकिन आजकल महिलाएं भी समान रूप से आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो रही हैं। ऐसे में पुरुषों पर जिम्मेदारियों का भार कम होना चाहिए, लेकिन वास्तविकता यह है कि उनसे वही पुरानी अपेक्षाएं (expectations) की जाती हैं। शादी के बाद पुरुष से उम्मीद की जाती है कि वह पूरे परिवार की देखभाल करे, लेकिन अगर रिश्ता टूट जाए तो उसे गुजारा भत्ता (alimony) भी देना पड़ता है।

इस बहस में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि महिलाओं की तरह पुरुष भी भावनात्मक (emotional) और मानसिक समस्याओं का सामना करते हैं, लेकिन समाज उनसे अपेक्षा करता है कि वे अपने दर्द को छिपाकर रखें। ‘लड़के रोते नहीं’ जैसी मानसिकता ने पुरुषों को कमजोर बना दिया है और उन्हें अपनी भावनाओं को जाहिर करने का मौका नहीं मिलता। इससे उनमें अवसाद (depression) और अकेलापन (loneliness) बढ़ता जा रहा है। यह समस्या खासकर युवाओं में ज्यादा देखने को मिल रही है, जो अपने करियर और निजी जीवन में संतुलन नहीं बना पाते।

आज जरूरत इस बात की है कि समाज पुरुषों के अधिकारों को भी गंभीरता से ले और उनके लिए भी एक सुरक्षित माहौल तैयार करे। मेंनिनिज्म का यह आंदोलन कोई स्त्री-विरोधी (anti-women) नहीं है, बल्कि यह पुरुषों के अधिकारों को भी समान रूप से महत्व देने की मांग कर रहा है।

सरकार और समाज को चाहिए कि वे इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा करें और कानूनों में आवश्यक संशोधन (amendments) करें ताकि कोई भी व्यक्ति—चाहे वह पुरुष हो या महिला—अन्याय का शिकार न हो। पुरुषों के लिए मानसिक स्वास्थ्य (mental health) से जुड़े प्रोग्राम चलाए जाने चाहिए, उन्हें भी भावनात्मक सहारा (emotional support) दिया जाना चाहिए और उन्हें झूठे आरोपों से बचाने के लिए कानूनों को अधिक निष्पक्ष बनाया जाना चाहिए।

अंततः, यह बहस केवल पुरुषों के अधिकारों की नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज में न्याय और समानता (equality) की बहस है। अगर हम वाकई एक समान समाज (equal society) की कल्पना करते हैं तो हमें पुरुषों की समस्याओं को भी उतनी ही गंभीरता से लेना होगा, जितनी गंभीरता से हम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करते हैं।

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