Krishna’s Secret to Success & Love : जानिए और सफल बनें!

By NCI
On: October 2, 2025 11:56 AM

श्रद्धा और रुचि, ये दो महत्वपूर्ण तत्व हैं जो जीवन में सफलता और संतोष की नींव रखते हैं। श्रद्धा का जन्म समय और परिस्थिति के अनुसार होता है, जबकि रुचि का इससे कोई संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, व्रत और पर्व श्रद्धा के प्रतीक हैं, जो एक निर्धारित तिथि पर किए जाते हैं। वहीं, किसी को प्रतिदिन चाय पीने की आदत हो तो यह उसकी रुचि कहलाएगी, जो किसी विशेष तिथि या अवसर पर निर्भर नहीं करती। जब श्रद्धा प्रबल होती है, तो धीरे-धीरे रुचि भी जागृत होती है, और यही जीवन में एक मजबूत नींव का निर्माण करती है।

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में ब्रजवासियों का प्रेम इसी श्रद्धा और रुचि का सर्वोच्च उदाहरण है। श्रीकृष्ण जब ब्रज में थे, तब गोपियां उनसे मिलने के लिए बिना किसी तिथि या अवसर के दौड़ पड़ती थीं, क्योंकि उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति गहरी रुचि थी। भगवान श्रीकृष्ण ने भी ब्रजवासियों के इस अनन्य प्रेम को पूर्ण रूप से स्वीकार किया और उनके प्रेम के कारण ही उन्होंने ब्रज में अपने दिव्य लीलाओं को रचाया। शास्त्रों में प्रेम को तीन भागों में विभाजित किया गया है—साधारण रति, समंजन रति और सामर्थ्य रति। साधारण रति वह प्रेम है जो आम लोगों में होता है, जिसे मथुरा के लोगों ने निभाया। समंजन रति विशेष प्रेम है, जो द्वारिका के निवासियों में देखने को मिला। लेकिन सर्वोच्च प्रेम सामर्थ्य रति कहलाता है, जिसमें व्यक्ति अपने प्रेम से स्वयं भगवान को भी बांध लेता है, और यही प्रेम ब्रजवासियों में था।

भगवान श्रीकृष्ण ने मात्र 11 वर्षों तक ब्रज में निवास किया, जबकि उसके बाद लगभग 109 वर्षों तक वे मथुरा और द्वारिका में रहे। लेकिन इन 11 वर्षों में ही ब्रजवासियों ने उन्हें सच्चे प्रेम का अनुभव करा दिया, जो उनकी पूरी जीवन यात्रा में सर्वोपरि रहा। यह प्रेम किसी भी प्रकार की तर्क, समय या सीमा से परे था। भगवान स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्हें ब्रज का प्रेम कभी नहीं भुलाया जा सकता। प्रेम में समय का कोई बंधन नहीं होता। कोई वर्षों तक भगवान की भक्ति करता रहे, लेकिन यदि प्रेम में श्रद्धा और रुचि नहीं है, तो वह केवल एक परंपरा बनकर रह जाती है। वहीं, कोई क्षणभर में अपने हृदय से सच्चा प्रेम प्रकट कर दे, तो वह भगवान को भी मोह सकता है।

ब्रज में श्रीकृष्ण ने अपने माधुर्य रूप की स्थापना की। यह वही रूप है जो प्रेम और भक्ति से परिपूर्ण है। जब कोई 11-12 वर्ष का बालक होता है, तो उसमें किसी प्रकार की सांसारिक इच्छाएँ नहीं होतीं, फिर श्रीकृष्ण में ऐसी कोई भावना कैसे हो सकती थी? जब उन्होंने चीर हरण की लीला की, तब उनकी उम्र मात्र सात वर्ष थी। यह केवल उन लोगों की सोच की बात है, जो भगवान की लीलाओं को अपने सांसारिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करते हैं। लेकिन भक्तों के लिए यह स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला भक्तों की आत्मा को जागृत करने और प्रेम की वास्तविकता को समझाने के लिए थी।

श्रीकृष्ण का माधुर्य भाव ब्रज की मिट्टी में ही था। अन्य स्थानों पर वे योगीराज और योद्धा के रूप में प्रकट हुए, लेकिन ब्रज में वे केवल प्रेम के विग्रह थे। यही कारण है कि ब्रज में कभी भी उन्होंने कोई अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं किया। द्वारिका में वे राजा के रूप में प्रतिष्ठित थे, मथुरा में उन्होंने युद्ध किए, लेकिन ब्रज में वे केवल एक नटखट बालक के रूप में रहे, जो अपने भक्तों को आनंद और प्रेम का अनुभव कराते थे। एक विदेशी महिला ने भी इस बात को समझा और कहा कि भारत के सभी देवी-देवता किसी न किसी अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हैं, लेकिन केवल श्रीकृष्ण ही ऐसे हैं जो बिना किसी भय के अपनी बांसुरी बजाते हैं। यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी, जिसने सभी को उनकी ओर आकर्षित किया।

जब श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी को विवाह के लिए ले जाने आए, तो शत्रु उनके मार्ग में खड़े थे, लेकिन उनका सौंदर्य ऐसा था कि शत्रु भी उन्हें देखकर मोहित हो गए। किसी ने उनकी आंखों की सुंदरता की प्रशंसा की, तो किसी ने उनकी मुस्कान को अद्भुत बताया। उनके हवा में उड़ते केशों को देखकर लोग स्तब्ध रह गए और जब तक वे कुछ समझ पाते, श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी को लेकर जा चुके थे। यही था श्रीकृष्ण का माधुर्य स्वरूप, जिसमें शत्रु भी उनके प्रेम में बंध जाते थे।

श्रीकृष्ण का प्रेम केवल भक्ति नहीं, बल्कि एक दिव्य रस है, जो भक्त और भगवान के मध्य एक अनूठा संबंध स्थापित करता है। यह प्रेम केवल ब्रज तक सीमित नहीं था, बल्कि हर भक्त के हृदय में वह माधुर्य आज भी जीवित है। भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और श्रद्धा ही वह गुण हैं, जो किसी भी व्यक्ति को जीवन में असफल होने से बचा सकते हैं। जब प्रेम और श्रद्धा का सही संतुलन होता है, तब जीवन में कोई भी परिस्थिति व्यक्ति को डिगा नहीं सकती। यही श्रीकृष्ण का संदेश है, और यही भक्ति का सार है।

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