जब भारत ने 12 गांव देकर पाया शहीदों का गांव!
हुसैनीवाला गांव में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान की अमर गाथा है। भारत ने 12 गांव देकर इस ऐतिहासिक स्थल को पाकिस्तान से वापस लिया। यह गांव स्वतंत्रता संग्राम का महत्वपूर्ण प्रतीक है।
हुसैनीवाला गांव का इतिहास भारत और पाकिस्तान के बीच एक अनोखी और महत्वपूर्ण घटना से जुड़ा हुआ है, जिसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नायकों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान की कहानी छिपी हुई है। यह कहानी हमें न केवल इन नायकों के शौर्य की याद दिलाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे भारत ने अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर को संजोए रखने के लिए एक अनूठा कदम उठाया।
1928 में, जब भारत अंग्रेजों के अत्याचार से संघर्ष कर रहा था, तब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों ने अंग्रेज शासन के खिलाफ एक निर्णायक कदम उठाया। लाहौर में एक ब्रिटिश जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सैंडर्स की हत्या ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था। इस हत्याकांड के पीछे का उद्देश्य सिर्फ बदला लेना नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक सशक्त संदेश भेजने का प्रयास था। इस हत्याकांड के बाद, अंग्रेज प्रशासन ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया और इनपर एक विशेष अदालत में मुकदमा चलाया गया।
इस मुकदमे का परिणाम पहले से तय था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी की सजा सुनाई गई। इस सजा का समाचार पूरे देश में फैल गया, और भारतीय जनता में गहरा आक्रोश पैदा हुआ। अंग्रेजों को इस बात का डर था कि इन नायकों की फांसी के बाद विद्रोह भड़क सकता है, इसलिए उन्होंने इस फांसी को 24 मार्च से एक दिन पहले, 23 मार्च को ही अंजाम देने का निर्णय लिया।
फांसी के बाद, अंग्रेज अधिकारियों ने इनके शवों को गुप्त रूप से हुसैनीवाला गांव के पास सतलुज नदी के किनारे ले जाकर अंतिम संस्कार करने की योजना बनाई। उनका उद्देश्य यह था कि जनता को इसकी भनक न लगे और किसी भी प्रकार के विद्रोह से बचा जा सके। लेकिन, अंग्रेजों की यह योजना पूरी तरह सफल नहीं हो पाई। जब इन नायकों के शवों को जलाया जाने लगा, तो वहां से धुआं उठता देख गांव वालों को शक हुआ। धीरे-धीरे यह खबर फैलने लगी, और लोग उस स्थान पर इकट्ठा होने लगे।
जनता के वहां पहुंचने से पहले ही, अंग्रेज सैनिक शवों को नदी में फेंक कर वहां से भाग निकले। लेकिन भारतीयों के लिए यह बलिदान मात्र एक अंत नहीं था, बल्कि यह एक नई शुरुआत थी। लोगों ने इन शहीदों के शवों को नदी से निकालकर फिर से ससम्मान अंतिम संस्कार किया। हुसैनीवाला गांव की यह घटना न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, बल्कि यह हमारे देश के लिए एक गर्व का विषय भी है।
1947 में जब भारत का विभाजन हुआ, तो हुसैनीवाला गांव पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। विभाजन के इस कष्टप्रद दौर में, कई गांवों और शहरों का स्थानांतरण हुआ, और हुसैनीवाला भी उनमें से एक था। लेकिन इस गांव की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता के कारण, भारतीयों ने इसे फिर से भारत में शामिल करने की मांग की।
इस मांग को लेकर शहीदों के परिजनों और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से संपर्क किया। उन्होंने पंडित नेहरू को पत्र लिखकर इस गांव को वापस लाने की अपील की। पंडित नेहरू ने इस अपील को गंभीरता से लिया और 1961 में पाकिस्तान सरकार से हुसैनीवाला गांव को भारत को लौटाने की मांग की।
पाकिस्तान ने इस मांग के बदले में कुछ शर्तें रखीं। इसके जवाब में, भारत ने बॉर्डर के पास स्थित 12 गांवों को पाकिस्तान को सौंपने की पेशकश की। यह एक अनोखा समझौता था, जिसमें भारत ने हुसैनीवाला जैसे एक महत्वपूर्ण गांव के बदले 12 गांव पाकिस्तान को देने का निर्णय लिया। पाकिस्तान इस प्रस्ताव से सहमत हुआ और हुसैनीवाला गांव एक बार फिर भारत का हिस्सा बन गया।
हुसैनीवाला गांव न केवल भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान का गवाह है, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अन्य महत्वपूर्ण नायकों के अंतिम संस्कार का स्थल भी रहा है। बटुकेश्वर दत्त, जिन्होंने दिल्ली के सेंट्रल असेंबली में बम फेंक कर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध प्रकट किया था, उनकी भी अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार हुसैनीवाला में किया जाए। उनकी यह इच्छा पूरी की गई, और उनका अंतिम संस्कार इसी गांव में किया गया।
इसके अलावा, भगत सिंह की मां, जिन्होंने अपने बेटे के बलिदान को गर्व से सहा, उनका भी अंतिम संस्कार हुसैनीवाला में ही किया गया। यह गांव अब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की स्मृति को संजोए हुए है, और हर साल 23 मार्च को यहां शहीदी मेला आयोजित किया जाता है। इस मेले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि दी जाती है और उनके बलिदान की गाथा को याद किया जाता है।
हुसैनीवाला गांव आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह गांव न केवल हमारे देश के लिए एक प्रेरणा स्रोत है, बल्कि यह हमें यह भी याद दिलाता है कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम के नायकों ने किस प्रकार अपने प्राणों की आहुति देकर देश की स्वतंत्रता की नींव रखी।
भारत ने इस गांव को वापस पाने के लिए जो बलिदान दिया, वह आज भी एक मिसाल है। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हमारे देश के नायकों की विरासत को संजोने के लिए हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए और उनकी स्मृतियों को हमेशा जीवित रखना चाहिए। हुसैनीवाला गांव की यह गाथा न केवल भारतीय इतिहास की धरोहर है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा भी है, जो उन्हें देशप्रेम और बलिदान के महत्व को समझने में मदद करेगी।
इस प्रकार, हुसैनीवाला गांव की कहानी हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक अभिन्न हिस्सा है, जो हमें यह सिखाती है कि देश की स्वतंत्रता और उसके नायकों के बलिदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इस गांव का इतिहास हमें गर्व के साथ याद दिलाता है कि हमारे देश ने अपने शहीदों की स्मृति को संजोए रखने के लिए जो भी आवश्यक कदम उठाए, वे आज भी हमारे लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं।