प्रेम और तंत्र साधना की रहस्यमयी गाथा!
यह कहानी गौरांग नामक युवक की है, जो अपनी कुरूपता और गरीबी के कारण समाज द्वारा उपेक्षित था। गुरु परम भट्ट तंत्र के मार्गदर्शन और नागमती के प्रेम ने उसे आत्म-स्वीकृति और जीवन के सच्चे अर्थ की ओर प्रेरित किया।
कहानी प्राचीन काल की है जब काशी को तांत्रिकों, अघोरियों और विद्वानों की तपोस्थली माना जाता था। उसी दौर में बनारस के पास एक गांव था, सियावा, जहां एक गरीब ब्राह्मण परिवार में गौरांग नाम का एक लड़का पैदा हुआ। उसका नाम गौरांग रखा गया, जिसका अर्थ होता है गोरे वर्ण वाला। हालांकि, वास्तविकता इसके विपरीत थी। गौरांग का रंग गहरा काला था, और उसका चेहरा इतना कुरूप था कि छोटे बच्चे उसे देखकर डर जाते थे। समाज ने उसे हमेशा उसकी रंगत और कुरूपता के लिए ताने मारे और उपहास का पात्र बनाया।
गौरांग जब पांच-छह साल का हुआ, तो उसे गांव की पाठशाला में पढ़ने भेजा गया। वहां उसे साथी बच्चों से आए दिन ताने और भद्दी टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। वह चुपचाप सब कुछ सहन करता रहा, लेकिन उसके मन में धीरे-धीरे एक गहरी उदासी और अवसाद घर करने लगा। समय बीतता गया, और गौरांग अपनी युवावस्था में प्रवेश कर गया। इस उम्र में उसे भी अपने मित्रों की तरह प्रेम की भावना महसूस होने लगी। उसे गांव के पास के एक गांव की एक सुंदर लड़की से प्रेम हो गया, लेकिन उसकी कुरूपता और गरीबी के कारण वह लड़की उसे पसंद नहीं करती थी।
गौरांग ने अपने दिल की बात उस लड़की से कही, लेकिन उसने न केवल उसे मना कर दिया बल्कि उसके रूप और गरीबी को लेकर भद्दे ताने भी कसे। इस घटना ने गौरांग के आत्मविश्वास को पूरी तरह तोड़ दिया। वह समाज से कटने लगा और लोगों से मिलने-जुलने से बचने लगा। उसके माता-पिता, जो पहले से ही आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे, अपने बेटे की इस स्थिति को देखकर चिंतित हो गए। उन्होंने गौरांग से बात की और उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन उसका अवसाद गहरा होता गया।
गौरांग के पिता ने आखिरकार उसे काशी जाकर विद्या अध्ययन करने का सुझाव दिया। उन्होंने अपने एक मित्र का पता देते हुए कहा कि काशी जाकर वह अपनी पढ़ाई जारी रखे, ताकि विद्या के बल पर वह अपनी कुरूपता को पीछे छोड़ सके। उन्होंने उसे समझाया कि अष्टावक्र जैसे विद्वान, जो शारीरिक रूप से विकलांग थे, फिर भी राजा जनक के गुरु बन सके थे। गौरांग को अपने पिता की बात जंच गई, और वह उनके हाथ की लिखी चिट्ठी लेकर काशी के लिए रवाना हो गया।
काशी पहुंचकर, गौरांग को यह दुखद समाचार मिला कि उसके पिता के मित्र का निधन हो चुका था। यह सुनकर वह पूरी तरह टूट गया। उसे लगा कि अब उसका इस दुनिया में कोई नहीं है। वह गंगा किनारे बैठा अपने भाग्य को कोस रहा था। तभी एक वृद्ध व्यक्ति उसके पास आया और उसकी परेशानी का कारण पूछा। गौरांग ने अपनी पूरी कहानी उस वृद्ध को सुना दी। वृद्ध व्यक्ति ने गौरांग को चंदौली के जंगल में स्थित आचार्य परम भट्ट के गुरुकुल में जाने का सुझाव दिया, जहां बिना किसी शुल्क के विद्या प्राप्त की जा सकती थी।
गौरांग ने वृद्ध व्यक्ति की सलाह मानी और चंदौली के जंगलों की ओर चल पड़ा। दो दिन के सफर के बाद वह आचार्य परम भट्ट के आश्रम में पहुंचा। आचार्य परम भट्ट एक सिद्ध पुरुष थे, लेकिन उनका स्वभाव अत्यंत शांत और सौम्य था। उनके आश्रम में अनेक विद्यार्थी विद्या ग्रहण करते थे, जिनमें अमीर और गरीब, दोनों परिवारों के छात्र शामिल थे। आचार्य परम भट्ट की एक बेटी थी, नागमती, जो अपनी कुरूपता के कारण चिंतित रहती थी। उसने अपने भीतर छिपे दर्द को जानने के कारण गौरांग के प्रति सहानुभूति महसूस की।
गौरांग ने आश्रम में पढ़ाई शुरू की और अपनी बुद्धिमत्ता के कारण जल्दी ही अपने गुरु का प्रिय बन गया। लेकिन अन्य छात्रों में उसके प्रति ईर्ष्या की भावना भी बढ़ने लगी। वे उसे उसकी कुरूपता के लिए ताने मारते और भद्दे मजाक करते। गौरांग ने इन सब बातों को नजरअंदाज करने की कोशिश की, लेकिन एक दिन वह भी टूट गया। एक अमीर छात्र ने उसे उसकी कुरूपता को लेकर इतनी भद्दी बातें कह दीं कि गौरांग का आत्मबल फिर टूट गया।
गौरांग अपने गुरु के पास गया और उनसे मदद की गुहार लगाई। आचार्य परम भट्ट ने उसे कर्ण पिशाचिनी की साधना करने की विधि बताई। उन्होंने चेतावनी दी कि यह साधना अत्यंत कठिन और जोखिम भरी है, लेकिन गौरांग ने ठान लिया कि वह इसे करेगा। उसने जंगल में जाकर कर्ण पिशाचिनी की साधना शुरू की।
जंगल में चलते-चलते वह एक सुनसान खंडहर के पास पहुंचा, जहां उसने साधना करने का निर्णय लिया। साधना के दौरान, उसे कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन उसने हार नहीं मानी। नौवें दिन, कर्ण पिशाचिनी स्वयं प्रकट हुई और उसकी परीक्षा लेने लगी। उसने गौरांग को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया, लेकिन गुरु की चेतावनी के बावजूद, वह उसकी मादकता से मोहित हो गया और अपनी साधना तोड़ दी। इस प्रकार, कर्ण पिशाचिनी ने गौरांग पर कब्जा कर लिया और उसे नर पिशाच बना दिया।
गौरांग को इस बात का पछतावा हुआ कि उसने गुरु की चेतावनी को नजरअंदाज किया और अब वह एक नर पिशाच बन गया है। कर्ण पिशाचिनी ने गौरांग से कई हत्याएं करवाईं, जिससे उसका मन पूरी तरह टूट चुका था। वह एक दिन अपने गुरु के पास गया और उनसे सारी बातें बताईं। गुरु ने उसे सांत्वना दी और समाधान खोजने का आश्वासन दिया।
इस बीच, आचार्य परम भट्ट की बेटी नागमती, जो गौरांग से प्रेम करने लगी थी, ने मां दुर्गा की साधना करने का निर्णय लिया। नागमती ने कर्ण पिशाचिनी से अपने प्रेमी को मुक्त कराने के लिए मां दुर्गा की आराधना की। उसकी साधना सफल रही, और मां की शक्ति ने कर्ण पिशाचिनी को नष्ट कर दिया। गौरांग को अपने जीवन का सच्चा प्रेम नागमती के रूप में मिल गया।
गौरांग ने सीखा कि जीवन में कुरूपता के कारण खुद को खत्म करना सही नहीं है, और दुनिया की बातें मायने नहीं रखतीं। वह समझ गया कि सच्चा प्रेम किसी भी बाधा को पार कर सकता है। अंततः गौरांग और नागमती का विवाह हुआ, और वे अपने गुरु के आश्रम में लौट आए। गौरांग ने गुरुकुल की जिम्मेदारी संभाली और अपने माता-पिता के साथ एक सुखी जीवन व्यतीत करने लगा।
इस कहानी का संदेश यह है कि आत्मविश्वास और प्रेम की शक्ति से किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है। जीवन में सच्चे प्रेम का महत्व समझना और दूसरों की भलाई के लिए काम करना ही सही मार्ग है। कुरूपता या शारीरिक विकृतियों के बावजूद, सच्चा ज्ञान और प्रेम ही जीवन की वास्तविक पूंजी है। इस कहानी से यह सीख मिलती है कि व्यक्ति की सच्ची सुंदरता उसके चरित्र और कर्मों में होती है, न कि उसके बाहरी रूप में। जीवन में प्रेम और ज्ञान का महत्व सबसे ऊपर होता है, और यही सच्चे जीवन की राह दिखाता है।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
जो गुरु अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान रूपी अंजन से दूर कर दृष्टि प्रदान करते हैं, उन गुरु को नमस्कार है। इस लेख में गुरु-शिष्य की उस परंपरा को दर्शाया गया है, जहाँ गुरु परम भट्ट ने गौरांग को सही मार्ग दिखाया और उसके जीवन की कठिनाइयों को पार करने में सहायता की। गुरु के ज्ञान और मार्गदर्शन से ही गौरांग को अपनी सच्ची पहचान और प्रेम का महत्व समझ आया।