केरल का वह विद्वान जिसने सबको हरा दिया!
यह कहानी केरल के एक विद्वान ब्राह्मण की है जिसने अपने ज्ञान, ब्रह्मचर्य और आत्मसंयम के बल पर सभी प्रकार के प्रलोभनों को नकारा और धर्म के मार्ग पर अडिग रहा।
प्राचीन भारत की भूमि पर अनेक ऐसे महान विद्वान और संत हुए हैं, जिनकी ज्ञान, तपस्या और आत्मसंयम ने सदियों से लोगों को प्रेरित किया है। केरल के एक छोटे से गाँव में जन्मे इस महान ब्राह्मण की कथा, जो आज भी इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखी जाती है, हमें यह सिखाती है कि सच्चा ज्ञान और आत्मानुशासन व्यक्ति को न केवल समाज में उच्च स्थान दिलाता है, बल्कि उसे अलौकिक शक्तियों के समक्ष भी अडिग रहने की शक्ति प्रदान करता है।
यह ब्राह्मण, जो मात्र 25 वर्ष की आयु में ही अद्वितीय विद्वान बन गया था, उसका जन्म भी एक विशिष्ट उद्देश्य के साथ हुआ था। कहा जाता है कि ब्राह्मणों ने देवताओं की विशेष उपासना करके इस बालक का अवतरण करवाया था। उनका उद्देश्य था कि वह एक अन्य महान विद्वान को शास्त्रार्थ में पराजित करे। जब यह बालक जन्मा, तो उसका भविष्य ही नहीं, बल्कि उसकी विद्वत्ता भी देवताओं की कृपा से निर्धारित हो चुकी थी। इस विद्वान ने अपने जन्म का उद्देश्य पूरा किया, और वह उस विद्वान को शास्त्रार्थ में हराने में सफल हुआ, जिसके लिए उसे अवतरित किया गया था। लेकिन समय के साथ, इस ब्राह्मण की विद्वत्ता इतनी अधिक बढ़ गई कि वह छुआछूत, जाति-पाति, और अन्य सामाजिक बंधनों से ऊपर उठ गया। उसकी यह सोच उस समय के समाज और विशेषकर ब्राह्मण समाज के लिए स्वीकार्य नहीं थी। ब्राह्मण समाज ने यह सोचकर उसके खिलाफ षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए कि अगर उसे इसी तरह केरल में रहने दिया गया, तो उनकी मान्यताएं और परंपराएं खतरे में पड़ जाएंगी।
इस विद्वान ब्राह्मण को केरल से बाहर करने का षड्यंत्र रचने के लिए, तीन कर्मकांडी ब्राह्मणों ने एक योजना बनाई। उन्होंने अपनी शक्तियों और तंत्र-मंत्र के ज्ञान का उपयोग करके एक यक्षिणी को प्रकट किया। इस यक्षिणी का नाम कनकावती था, और वह अत्यंत कामुक और शक्तिशाली थी। ब्राह्मणों ने उसे इस विद्वान ब्राह्मण के ब्रह्मचर्य को भंग करने के लिए भेजा, ताकि वह भ्रष्ट हो जाए और केरल छोड़कर चला जाए। यक्षिणी, जो अत्यंत शक्तिशाली थी और काम-भावना को उत्तेजित करने में समर्थ थी, उस विद्वान ब्राह्मण के पास पहुंची और उसने उसे अपने मोहपाश में फंसाने का हर संभव प्रयास किया। लेकिन उस ब्राह्मण का आत्मसंयम और उसकी आत्मा की शुद्धता इतनी दृढ़ थी कि यक्षिणी की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं।
जब यक्षिणी ने देखा कि उसका कामुक मंत्र उस ब्राह्मण पर बिल्कुल भी प्रभाव नहीं डाल रहा है, तो वह चिंतित हो गई। उसने अपने सभी दिव्य मंत्रों और शक्तियों का प्रयोग किया, लेकिन वह हर बार असफल रही। यह देखकर यक्षिणी को न केवल आश्चर्य हुआ, बल्कि उसने समझा कि यह ब्राह्मण साधारण व्यक्ति नहीं है। उसने अपने संपूर्ण शक्ति के साथ उसे भ्रष्ट करने का प्रयास किया, लेकिन हर बार उसे हार का सामना करना पड़ा। तब यक्षिणी ने उस ब्राह्मण से कहा कि वह उसकी शक्तियों से अजेय है और उसने यह भी बताया कि उसे किसलिए भेजा गया था।
यक्षिणी के इस खुलासे पर, ब्राह्मण ने न केवल उसकी विनम्रता का सम्मान किया, बल्कि उसे यह भी बताया कि उसके ऊपर कोई भी शक्ति इसलिए काम नहीं कर रही है क्योंकि वह भगवती कवच से संरक्षित है। यह कवच उसे हर समय उसकी आत्मा की रक्षा करता है, और इसीलिए कोई भी दुष्ट शक्ति उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकती। ब्राह्मण ने यक्षिणी को यह भी बताया कि वह उसकी मंशा समझ चुका है, और उसने यक्षिणी से अनुरोध किया कि वह ब्राह्मणों से जाकर कहे कि यदि वे उसे केरल से बाहर करना चाहते हैं, तो उन्हें स्वयं उसके पास आकर उपाय पूछना होगा।
यक्षिणी, जो अब ब्राह्मण की दिव्यता और ज्ञान से प्रभावित हो चुकी थी, ने उसकी बात मानी और उन ब्राह्मणों के पास जाकर सारा विवरण बताया। ब्राह्मणों ने, जो अब तक यह सोच रहे थे कि यक्षिणी उनके काम को पूरा कर देगी, जब यह सुना कि उन्हें स्वयं ही उपाय खोजना होगा, तो वे चिंतित हो गए। लेकिन अब उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने एक सभा का आयोजन किया और वहां इस विषय पर विचार-विमर्श किया। अंततः उन्होंने निर्णय लिया कि वे स्वयं उस विद्वान ब्राह्मण के पास जाकर उससे उपाय पूछेंगे।
सभा के अगले दिन, जब ब्राह्मणों ने उस विद्वान ब्राह्मण से उसके भ्रष्ट होने का उपाय पूछा, तो उसने उनसे कहा कि वह अपने आप ही भ्रष्ट हो जाएगा, जब समय आएगा। उसने ब्राह्मणों से कहा कि वे बस प्रतीक्षा करें और देखेंगे कि वह स्वयं ही अपना धर्म त्याग देगा। ब्राह्मणों ने इस उत्तर को सुना और उन्हें लगा कि उनका उद्देश्य पूरा हो गया है।
समय बीता, और अंततः वह दिन आया जब ब्राह्मण ने स्वयं ही घोषणा की कि वह अब भ्रष्ट हो चुका है और केरल छोड़कर जा रहा है। उसने ब्राह्मणों से कहा कि वह अब उनसे कोई संबंध नहीं रखेगा और उनके बीच कभी नहीं आएगा। इसके बाद, उस ब्राह्मण ने केरल छोड़ दिया और फिर कभी किसी ने उसे नहीं देखा। उसके जाने के बाद, केरल के ब्राह्मण समाज ने राहत की सांस ली, लेकिन वे यह भी समझ गए कि उन्होंने एक महान विद्वान और आत्मसंयमी को खो दिया है।
यह कहानी न केवल एक महान ब्राह्मण के ज्ञान और आत्मसंयम की है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि सच्चे ज्ञान के साथ आत्मा की शुद्धता और ईश्वर की कृपा हो तो कोई भी शक्ति, चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो, उसे भ्रष्ट नहीं कर सकती। यह कथा हमें यह सिखाती है कि सच्चा ज्ञान और आत्मसंयम ही व्यक्ति को समाज में उच्च स्थान दिलाते हैं और उसे हर प्रकार के प्रलोभन से दूर रखते हैं।
यह विद्वान ब्राह्मण आज भी केरल के इतिहास में एक अद्वितीय स्थान रखता है। उसकी कथा आज भी लोगों को प्रेरित करती है और यह संदेश देती है कि सच्चा ज्ञान और आत्मानुशासन ही व्यक्ति को महान बनाते हैं। इस ब्राह्मण की कथा हमें यह सिखाती है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियां क्यों न हों, यदि व्यक्ति का संकल्प और आत्मसंयम दृढ़ हो, तो वह किसी भी चुनौती का सामना कर सकता है और विजयी हो सकता है। इस ब्राह्मण ने अपने जीवन में जो किया, वह न केवल उसे अमर बना गया, बल्कि उसने समाज को यह भी सिखाया कि सच्चा धर्म और सच्चा ज्ञान वही है जो व्यक्ति को हर प्रकार के बाहरी प्रलोभनों से दूर रखे और उसे सच्चाई की राह पर चलने के लिए प्रेरित करे।
शुद्धोऽपि ब्रह्मचर्येण, स्वाध्यायेन च ज्ञानवान्।
धर्मस्य मार्गे स्थिरः स्यात्, मोहं न कुरुते हि सः।।
शुद्ध और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला व्यक्ति, स्वाध्याय और ज्ञान से युक्त होकर धर्म के मार्ग पर स्थिर रहता है, और वह किसी भी प्रकार के मोह में नहीं फँसता। यह श्लोक उस विद्वान ब्राह्मण के चरित्र को दर्शाता है, जो अपनी शुद्धता, ब्रह्मचर्य और ज्ञान के माध्यम से सभी प्रलोभनों से परे था। उसने कठिन परिस्थितियों में भी अपने धर्म और आत्मसंयम को बनाए रखा और अंततः किसी भी प्रकार की मोह-माया से मुक्त रहा।