Bhavishya Purana Epic Part-1 : ब्रह्मपर्व, क्या आप जानते है नारायण का सही अर्थ?

By NCI
On: December 17, 2025 6:03 PM

Bhavishya Purana : ॐ श्री गणेशाय नमः ॐ नमो नारायणाय आज से हम भविष्य पुराण के कथा की शुरुवात करेंगे । इसमे सबसे पहले ब्रह्मपर्व आता है। हम ज्ञान की देवी माँ सरस्वती और इस महान ज्ञान को हम तक पहुँचाने वाले महर्षि वेदव्यास को प्रणाम करते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि रामायण, महाभारत और पुराणों का पाठ केवल कहानियां सुनना नहीं है, बल्कि यह अपने भीतर की बुराइयों को हराकर अच्छाइयों को अपनाने का एक माध्यम है। महर्षि पराशर के पुत्र और माता सत्यवती के दुलारे भगवान वेदव्यास की सदा जय हो! उनका ज्ञान वैसा ही है जैसे कमल के फूल से टपकता हुआ अमृत, जिसे पीकर पूरा संसार तृप्त होता है और अज्ञान के अँधेरे से बाहर निकलता है।

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इस ‘भविष्य महापुराण’ को सुनने का महत्व भी बहुत अद्भुत बताया गया है। जरा सोचिए, एक विद्वान और ज्ञानी ब्राह्मण को सोने से मढ़े हुए सींगों वाली सौ गायें दान करने से जो महापुण्य मिलता है, ठीक उतना ही पुण्य केवल इस पुराण की पवित्र कथाओं को श्रद्धापूर्वक सुनने से प्राप्त हो जाता है। यह कथा हमें सीधे उस समय में ले जाती है जब पांडवों के वंशज, महाबलशाली राजा शतानीक का राज था। एक बार की बात है, राजा शतानीक अपनी सभा में बैठे थे, तभी वहां महर्षि वेदव्यास के शिष्य सुमन्तु मुनि का आगमन हुआ। उनके साथ वसिष्ठ, पराशर, याज्ञवल्क्य, गौतम और भारद्वाज जैसे महान तेजस्वी ऋषि भी पधारे। यह दृश्य ऐसा था मानो साक्षात् ज्ञान के सूरज धरती पर उतर आए हों।

राजा शतानीक ने जब इन महान महात्माओं को अपनी सभा में देखा, तो उनका हृदय भर आया। उन्होंने तुरंत अपने सिंहासन से उठकर, पूरे विधि-विधान और सम्मान के साथ ऋषियों का स्वागत किया। उन्हें ऊंचे और उत्तम आसनों पर बैठाया और उनकी पूजा की। हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से राजा ने कहा, “हे महात्माओं! आज मेरा जीवन सफल हो गया। संतों का तो केवल स्मरण करने से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है, और आज तो आप स्वयं मुझे दर्शन देने मेरे द्वार पर आए हैं। मैं धन्य हो गया हूँ। आप लोगों के चरणों की धूल पड़ने से मेरी यह सभा पवित्र हो गई है। अब आप कृपा करके मेरे मन की जिज्ञासा शांत करें और मुझे ज्ञान का उपदेश दें।” राजा की आँखों में भक्ति और ज्ञान पाने की इच्छा थी, और यहीं से एक महान संवाद की शुरुआत हुई।

जब राजा शतानीक ने ऋषियों से अपने कल्याण और पवित्रता के लिए पुण्यमयी कथाएं सुनाने का आग्रह किया, तो वहां उपस्थित ऋषियों ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया। उन्होंने कहा, “हे राजन! इस गंभीर विषय पर आप हम सबके गुरु, साक्षात् भगवान नारायण के स्वरूप ‘भगवान वेदव्यास’ जी से निवेदन करें। वे अत्यंत कृपालु हैं और समस्त विद्याओं के ज्ञाता हैं। जिन्होंने ‘महाभारत’ जैसे महान ग्रंथ की रचना की है, वे ही आपकी शंकाओं का सबसे उत्तम समाधान कर सकते हैं।” ऋषियों के परामर्श को शिरोधार्य करते हुए, राजा शतानीक ने भगवान वेदव्यास जी के चरणों में प्रार्थना की, “हे प्रभु! आप मुझे वह धर्ममयी कथा सुनाएं जिससे मैं पवित्र हो सकूं और इस संसार रूपी सागर से मेरा उद्धार हो सके।” तब व्यास जी ने अपने शिष्य की ओर संकेत करते हुए कहा, “राजन! यह मेरा परम तेजस्वी शिष्य ‘महर्षि सुमन्तु’ है। यह समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है और यही आपकी जिज्ञासा को पूर्ण करेगा।” अन्य मुनियों ने भी इस बात का समर्थन किया।

आज्ञा पाकर राजा शतानीक ने महामुनि सुमन्तु से बड़े आदरभाव से पूछा, “हे द्विजश्रेष्ठ! कृपा करके आप उन पुण्यमयी कथाओं का वर्णन करें, जिनके श्रवण मात्र से पापों का नाश होता है।” उत्तर में सुमन्तु मुनि ने कहा, “राजन! मनु, विष्णु, यम, वसिष्ठ, गौतम और पराशर आदि ऋषियों द्वारा रचित अनेक ‘धर्मशास्त्र’ हैं। इन्हें समझकर मनुष्य परम आनंद को प्राप्त करता है।” इस पर राजा ने विनम्रतापूर्वक कहा, “प्रभु! इन धर्मशास्त्रों का श्रवण तो मैं पहले ही कर चुका हूँ। मेरी अब इन्हें पुनः सुनने की इच्छा नहीं है। कृपा करके आप मुझे वह ज्ञान दें जो चारों वर्णों के कल्याण के लिए उपयुक्त हो।” तब सुमन्तु मुनि बोले, “हे महाबाहो! इस संसार सागर में डूबे प्राणियों को बचाने के लिए अठारह महापुराण, श्रीरामकथा और महाभारत ही नौका के समान हैं। भगवान व्यास ने वेदों और व्याकरण को समझकर ही महाभारत की रचना की है। इसके अलावा ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, नारदीय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, मार्कन्डेय, लिंग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ और ब्रह्माण्ड—ये अठारह महापुराण हैं। बताईये, इनमें से आप कौन सा पुराण सुनना चाहते हैं?”

मुनि के मुख से अठारह पुराणों के नाम सुनकर राजा शतानीक के मन में एक विशेष ग्रंथ को जानने की उत्सुकता जाग उठी। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, “हे विप्रवर! मैंने महाभारत और श्रीरामकथा का श्रवण किया है। मैंने अन्य कई पुराणों को भी सुना है, किन्तु आज तक मुझे ‘भविष्यपुराण’ सुनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। मेरे मन में इस पुराण को लेकर बहुत भारी कौतूहल और जिज्ञासा है। अतः हे श्रेष्ठ मुनि! आप कृपा करके मुझे ‘भविष्यपुराण’ की ही पावन कथा सुनायें।”राजा की यह बात सुनकर सभा में उपस्थित सभी ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और यहीं से भविष्यपुराण की कथा का आरम्भ सुनिश्चित हुआ।

महामुनि सुमन्तु, राजा शतानीक की जिज्ञासा से अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले—”हे राजन! आपने बहुत ही उत्तम और कल्याणकारी प्रश्न किया है। मैं आपको उस पावन ‘भविष्यपुराण’ की कथा सुनाता हूँ, जो न केवल अद्भुत है बल्कि मोक्ष प्रदान करने वाली है। इस पुराण की महिमा इतनी अपार है कि इसके श्रद्धापूर्वक श्रवण मात्र से ब्रह्महत्या जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसे सुनने वाले को अश्वमेध यज्ञ करने जितना पुण्य प्राप्त होता है और अंत में वह सूर्यलोक की दिव्य गति को प्राप्त करता है। यह साक्षात् भगवान ब्रह्मा जी की वाणी है, जो परम मंगलकारी और सद्बुद्धि देने वाली है।

हे कुरुश्रेष्ठ! इस पुराण का मूल तत्त्व ‘सदाचार’ है। हमारे वेदों और श्रुतियों ने बार-बार कहा है कि सदाचार ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है। यदि कोई विद्वान वेदों का ज्ञाता हो, लेकिन उसका आचरण शुद्ध न हो, तो उसे वेदों का फल नहीं मिलता। मुनियों ने सदाचार को ही तपस्या और धर्म की नींव माना है। इस भविष्यपुराण में उसी पवित्र आचरण, तीनों लोकों की उत्पत्ति, विवाह संस्कार, स्त्री-पुरुष के लक्षण और देवी-देवताओं जैसे—सूर्य, विष्णु, शिव, दुर्गा और सत्यनारायण भगवान की पूजा-विधि का विस्तार से वर्णन है। इसमें राजा के कर्तव्य से लेकर तीर्थों की महिमा और गृहस्थ जीवन के नियमों का सार समाया हुआ है।

अब आप इस महान ज्ञान की पवित्र परंपरा को भी जान लें। यह ज्ञान गंगा कैसे हम तक पहुँची, इसका इतिहास अत्यंत रोचक है। सबसे पहले सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा जी ने यह ज्ञान भगवान शंकर को दिया। भगवान शंकर ने इसे श्रीहरि विष्णु को सुनाया। विष्णु जी ने देवर्षि नारद को, नारद जी ने देवराज इन्द्र को, और इन्द्र ने महर्षि पराशर को यह ज्ञान सौंपा। महर्षि पराशर ने इसे मेरे गुरु भगवान वेदव्यास को दिया और उन्हीं व्यास जी की कृपा से मैंने इसे प्राप्त किया है। पचास हजार श्लोकों वाला यह विशाल पुराण पाँच प्रमुख भागों में बँटा है—ब्रह्म पर्व, वैष्णव पर्व, शैव पर्व, त्वाष्ट्र पर्व और प्रतिसर्ग पर्व। जो भी भक्त इसे सच्चे मन से सुनता है, उसके जीवन में धन, यश और सुख-समृद्धि की कभी कमी नहीं रहती।”

कथा को आगे बढ़ाते हुए महामुनि सुमन्तु कहते हैं—”हे राजन! अब मैं आपको उस परम पवित्र ‘भूतसर्ग’ यानी सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन सुनाता हूँ, जिसे सुनने मात्र से मन को परम शांति मिलती है और सारे पापों का नाश हो जाता है। सृष्टि रचना से पहले, हमें उन अठारह विद्याओं को जानना चाहिए जो हमारे धर्म का आधार हैं। ये अठारह विद्याएँ हैं—चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद), छह वेदांग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छंद और ज्योतिष), मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र। इनके साथ जब हम आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थशास्त्र को मिला देते हैं, तो ये कुल अठारह महान विद्याएँ कहलाती हैं।

अब सुनिए कि यह संसार कैसे बना। बहुत पहले, इस सृष्टि के आरंभ में हर ओर केवल घोर अंधकार था। न कुछ दिखाई देता था, न कुछ जाना जा सकता था; सब कुछ एक गहरी नींद में सोया हुआ सा प्रतीत होता था। उस समय, उन परमपिता परमात्मा, जो स्वयं प्रकाशस्वरूप हैं, उन्होंने सृष्टि रचने की इच्छा की। सबसे पहले प्रभु ने जल को उत्पन्न किया और उसमें अपनी दिव्य शक्ति रूपी बीज को स्थापित किया। वह शक्ति जल में गिरते ही एक अत्यंत तेजस्वी ‘स्वर्ण-अण्ड’ (सोने के अंडे) के रूप में बदल गई, जो सूर्य के समान चमक रहा था। उसी हिरण्यगर्भ रूपी अंडे से लोकपितामह, चार मुख वाले भगवान ब्रह्मा जी का जन्म हुआ।

चूँकि जल की उत्पत्ति भगवान (नर) से हुई थी, इसलिए जल को ‘नार’ कहा गया। और क्योंकि वह जल ही भगवान का पहला निवास स्थान (अयन) बना, इसलिए प्रभु ‘नारायण’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान ब्रह्मा ने उस अंडे में रहकर दीर्घकाल तक तपस्या की और फिर उस अंडे के दो भाग कर दिए। एक भाग से पृथ्वी बनी और दूसरे से आकाश। इन दोनों के बीच में उन्होंने स्वर्ग, दिशाओं और महासागरों का निर्माण किया।

सृष्टि का क्रम आगे बढ़ाते हुए परमात्मा ने सबसे पहले आकाश को रचा, फिर क्रमशः वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जैसे पंचमहाभूतों की रचना की। वेदों के निर्देशानुसार ही ब्रह्मा जी ने सभी वस्तुओं के नाम और कर्म निश्चित किए। उन्होंने समय को बाँटा—दिन, रात, महीने, ऋतुएँ और संवत्सर बनाए। प्राणियों के कर्मों के अनुसार सुख-दुःख, पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म की व्यवस्था की। जैसे ऋतु बदलने पर वृक्षों में अपने आप फूल और फल आ जाते हैं, वैसे ही प्राणियों में उनके स्वभाव के अनुसार गुण प्रवेश कर गए।

संसार की वृद्धि और व्यवस्था के लिए ब्रह्मा जी ने अपने शरीर से चार वर्णों की उत्पत्ति की। उनके परम पवित्र मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्र प्रकट हुए। इसके बाद, ज्ञान के सूर्य का उदय हुआ। ब्रह्मा जी के चारों मुखों से चार वेद प्रकट हुए। उनके पूर्वी मुख से ‘ऋग्वेद’ प्रकट हुआ, जिसे महर्षि वसिष्ठ ने ग्रहण किया। दक्षिणी मुख से ‘यजुर्वेद’ का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे महर्षि याज्ञवल्क्य ने प्राप्त किया। पश्चिमी मुख से ‘सामवेद’ निकला, जिसे गौतम ऋषि ने धारण किया और उनके उत्तरी मुख से ‘अथर्ववेद’ प्रकट हुआ, जिसे लोकपूजित महर्षि शौनक ने ग्रहण किया।”

महामुनि सुमन्तु कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं—”हे राजन! भगवान ब्रह्मा जी के परम पवित्र पाँचवें मुख (ऊर्ध्व मुख) से अठारह पुराण, इतिहास और यम-स्मृति आदि शास्त्रों का उदय हुआ। इसके पश्चात सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए ब्रह्मा जी ने अपनी देह को दो भागों में विभाजित किया। उनका दाहिना भाग ‘पुरुष’ और बायां भाग ‘स्त्री’ बना। इनके संयोग से ‘विराट पुरुष’ की उत्पत्ति हुई। उस विराट पुरुष ने सृष्टि की रचना की इच्छा से कठोर तपस्या की और सबसे पहले दस महान ऋषियों को जन्म दिया, जो ‘प्रजापति’ कहलाए। इन परम तेजस्वी ऋषियों के नाम हैं—(१) नारद, (२) भृगु, (३) वसिष्ठ, (४) प्रचेता, (५) पुलह, (६) क्रतु, (७) पुलस्त्य, (८) अत्रि, (९) अंगिरा और (१०) मरीचि।

इसके बाद देवता, दैत्य, राक्षस, गंधर्व, अप्सराएं, पितर, मनुष्य, नाग और सर्प आदि की रचना हुई और उनके रहने के लिए लोकों का निर्माण किया गया। भगवान ने आकाश में बिजली, बादल, इंद्रधनुष, धूमकेतु और नक्षत्रों को सजाया। धरती पर हाथी, घोड़े, मृग, पशु-पक्षी और जल में रहने वाले जीवों को उत्पन्न कर भगवान भास्कर ने तीनों लोकों को पूर्ण किया।

……हे राजन! अब मैं आपको यह बताता हूँ कि इस सृष्टि में जीवों का जन्म किन चार प्रकारों से होता है, इसे ध्यान से सुनें:

  1. जरायुज (गर्भ से जन्म लेने वाले): मनुष्य, हाथी, पशु, राक्षस और पिशाच आदि माता के गर्भ से जन्म लेते हैं, इसलिए इन्हें ‘जरायुज’ कहते हैं।
  2. अंडज (अंडे से जन्म लेने वाले): पक्षी, सांप, मछली, कछुए और मगरमच्छ आदि का जन्म अंडे से होता है, अतः ये ‘अंडज’ कहलाते हैं।
  3. स्वेदज (पसीने या गर्मी से जन्म लेने वाले): मक्खी, मच्छर और खटमल जैसे छोटे जीव पसीने की उष्णता (गर्मी) से पैदा होते हैं, इसलिए ये ‘स्वेदज’ हैं।
  4. उद्भिज्ज (धरती फोड़कर निकलने वाले): पेड़-पौधे और लताएं धरती को भेदकर बाहर आती हैं, इसलिए ये ‘उद्भिज्ज’ कहलाती हैं।

वृक्षों के भी कई भेद हैं। जो पौधे फल पकने के बाद सूख जाते हैं, वे ‘ओषधि’ हैं (जैसे गेहूं-धान आदि)। जिनमें फूल दिखे बिना सीधे फल आ जाते हैं, वे ‘वनस्पति’ हैं (जैसे गूलर/बरगद)। और जिनमें फूल और फल दोनों लगते हैं, वे ‘वृक्ष’ कहलाते हैं (जैसे आम)।

यहाँ एक बहुत ही गूढ़ और ज्ञान की बात बताई गई है कि पेड़-पौधों में भी जीवन और चेतना होती है। उन्हें भी सुख और दुःख का अनुभव होता है, किन्तु अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण वे अज्ञान (तमोगुण) से ढके रहते हैं, इसीलिए वे हम मनुष्यों की तरह बोल नहीं पाते।

अंत में, यह समझ लें कि यह सारा चल-अचल जगत उस परमपिता परमात्मा की ही लीला है। जब वे परमात्मा योगनिद्रा में जाते हैं , तो यह सारी सृष्टि उनमें विलीन हो जाती है। और जब वे जागते हैं, तो पुनः सृष्टि का आरंभ होता है और सभी जीव अपने पुराने कर्मों के अनुसार फिर से जीवन यात्रा में लग जाते हैं। जागने और सोने का यह ईश्वरीय चक्र ही सृष्टि के बनने और मिटने का कारण है।”

महामुनि सुमन्तु राजा शतानीक को समय के रहस्य समझाते हुए कहते हैं—”हे राजन! ईश्वर की लीला अद्भुत है। परमपिता परमेश्वर के लिए एक ‘कल्प’ केवल एक दिन के समान है। इस कल्प के आरंभ में वे सृष्टि की रचना करते हैं और कल्प के अंत में प्रलय करते हैं। यानी, परमेश्वर के दिन में जीवन पनपता है और उनकी रात्रि में सब कुछ विलीन हो जाता है।

अब आप समय की सूक्ष्म गणना को ध्यान से सुनें। समय की सबसे छोटी इकाई ‘निमेष’ है, यानी पलक झपकने का समय। जब अठारह बार पलकें झपकती हैं, तो एक ‘काष्ठा’ बनती है।

  • तीस काष्ठा मिलकर एक ‘कला’ बनाती हैं।
  • तीस कलाओं का एक ‘क्षण’ होता है।
  • बारह क्षणों से एक ‘मुहूर्त’ बनता है।
  • और तीस मुहूर्तों को मिलाकर एक पूरा ‘दिन-रात’ बनता है।

इसी क्रम में तीस दिन-रात का एक ‘महीना’, दो महीनों की एक ‘ऋतु’, तीन ऋतुओं का एक ‘अयन’ और दो अयनों का एक ‘वर्ष’ होता है। भगवान सूर्यदेव ही दिन और रात का विभाजन करते हैं, जिससे सभी जीव रात में विश्राम करते हैं और दिन में अपने कर्मों में लगते हैं।

हे राजन! यहाँ एक विशेष बात यह है कि मनुष्यों, पितरों और देवताओं का समय अलग-अलग गति से चलता है:

  1. पितरों का समय: मनुष्यों का एक महीना, पितरों के एक दिन-रात के बराबर है। इसमें कृष्ण पक्ष उनका दिन है और शुक्ल पक्ष उनकी रात्रि।
  2. देवताओं का समय: मनुष्यों का एक पूरा वर्ष, देवताओं के केवल एक दिन-रात (अहोरात्र) के बराबर होता है। इसमें उत्तरायण उनका दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि।

अब आप युगों के मान को सुनिए, जो देवताओं के वर्षों (दिव्य वर्षों) में गिने जाते हैं:

  • सत्ययुग: यह 4,800 दिव्य वर्षों का होता है (इसमें मुख्य युग 4000 वर्ष और संधि काल के 800 वर्ष शामिल हैं)।
  • त्रेतायुग: यह कुल 3,600 दिव्य वर्षों का होता है।
  • द्वापरयुग: यह 2,400 दिव्य वर्षों का होता है।
  • कलियुग: यह 1,200 दिव्य वर्षों का होता है। इन चारों युगों को मिलाने पर 12,000 दिव्य वर्ष होते हैं, जिसे देवताओं का ‘एक युग’ कहा जाता है।

जब देवताओं के ऐसे एक हजार युग बीतते हैं, तब ब्रह्मा जी का केवल ‘एक दिन’ पूरा होता है और इतनी ही लंबी उनकी रात्रि होती है। जब ब्रह्मा जी अपनी रात्रि पूरी करके जागते हैं, तब वे सृष्टि रचने का विचार करते हैं। उनकी इस इच्छा से सबसे पहले ‘मन’ उत्पन्न होता है। उस मन की इच्छा शक्ति से सबसे पहले ‘आकाश’ तत्त्व प्रकट होता है, जिसका गुण ‘शब्द’ (ध्वनि) है। आकाश से ‘वायु’ उत्पन्न होती है, जिसका गुण ‘स्पर्श’ है। वायु की रगड़ से अंधकार को मिटाने वाला ‘तेज’ (अग्नि/प्रकाश) उत्पन्न होता है, जिसका गुण ‘रूप’ है। उस अग्नि से ‘जल’ की उत्पत्ति होती है, जिसका गुण ‘रस’ (स्वाद) है। और अंत में जल से गंध वाली ‘पृथ्वी’ उत्पन्न होती है। इसी क्रम से यह सृष्टि निरंतर चलती रहती है।”

महामुनि सुमन्तु कथा को आगे बढ़ाते हुए समय और युगों के चक्र को समझाते हैं। वे कहते हैं—”हे राजन! जिस प्रकार बारह हजार दिव्य वर्षों का एक ‘दिव्य युग’ होता है, उसी प्रकार जब ऐसे इकहत्तर (71) युग बीत जाते हैं, तो उसे एक ‘मन्वन्तर’ कहा जाता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि परमपिता ब्रह्मा जी के केवल एक दिन में ऐसे चौदह मन्वन्तर बीत जाते हैं।

अब युगों के प्रभाव को समझें। ‘सत्ययुग’ सबसे पवित्र समय होता है, जिसमें धर्म अपने चारों चरणों पर पूर्ण रूप से खड़ा रहता है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, धर्म का बल कम होता जाता है। त्रेतायुग में धर्म के तीन चरण, द्वापर में दो चरण और कलियुग में धर्म का केवल एक ही चरण शेष रह जाता है, जबकि तीन चरण अधर्म के होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों की आयु भी घटती है। सत्ययुग के निरोगी और सत्यवादी मनुष्य चार सौ वर्षों तक जीते हैं। त्रेता में यह आयु तीन सौ वर्ष, द्वापर में दो सौ वर्ष और कलियुग में घटकर केवल सौ वर्ष रह जाती है। हर युग का प्रधान धर्म भी अलग है—सत्ययुग में ‘तपस्या’, त्रेता में ‘ज्ञान’, द्वापर में ‘यज्ञ’ और कलियुग में ‘दान’ को ही मुख्य धर्म माना गया है।

सृष्टि की रक्षा और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए परमेश्वर ने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से चार वर्णों की रचना की। प्रभु के मुख से ‘ब्राह्मण’, भुजाओं से ‘क्षत्रिय’, जंघाओं से ‘वैश्य’ और चरणों से ‘शूद्र’ उत्पन्न हुए। इनके कर्म भी निर्धारित किए गए:

  • वेदों को पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना और दान देना-लेना, ये ब्राह्मणों के छह मुख्य कर्म हैं।
  • प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना और अध्ययन करना, ये क्षत्रियों के धर्म हैं।
  • पशुपालन, खेती, व्यापार, यज्ञ और अध्ययन वैश्यों के कर्म हैं।
  • और इन तीनों वर्णों की सेवा करना शूद्रों का मुख्य धर्म बताया गया है।

मुनि ने आगे समझाया कि शरीर में नाभि से ऊपर का भाग पवित्र माना जाता है और उसमें भी ‘मुख’ सबसे प्रधान है। चूँकि ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के मुख से हुई है और उन्होंने सबसे पहले ब्राह्मण को ही रचा ताकि वे देवताओं और पितरों तक हव्य-कव्य (यज्ञ का भाग) पहुँचा सकें, इसलिए ब्राह्मण को धर्मतः संसार का स्वामी माना गया है। सृष्टि में निर्जीव वस्तुओं से श्रेष्ठ जीव हैं, जीवों में बुद्धिमान पशु श्रेष्ठ हैं, पशुओं से श्रेष्ठ मनुष्य हैं, मनुष्यों में ब्राह्मण, ब्राह्मणों में विद्वान, विद्वानों में कर्मठ और उनमें भी ‘ब्रह्मज्ञानी’ सबसे श्रेष्ठ होते हैं।

यह सुनकर राजा शतानीक ने बड़ी जिज्ञासा से पूछा—”हे महामुने! ब्रह्मत्व और ब्रह्मलोक की प्राप्ति तो बहुत दुर्लभ है। फिर ब्राह्मणों में ऐसा कौन सा विशेष गुण है जिससे वे इसे प्राप्त करते हैं?”

तब सुमन्तु मुनि ने एक बहुत ही गूढ़ रहस्य बताया। उन्होंने कहा—”हे राजन! केवल जन्म से ही सब कुछ नहीं होता। जिस ब्राह्मण ने शास्त्रों में बताए गए ‘गर्भाधान’ से लेकर पूरे ‘अड़तालीस संस्कार’ विधि-विधान से पूर्ण किए हों, वही ब्राह्मण ब्रह्मलोक और ब्रह्मत्व का अधिकारी होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘संस्कार’ ही महानता का मूल कारण हैं।”

इस पर राजा शतानीक का कौतूहल और बढ़ गया और उन्होंने तुरंत पूछा—”हे महात्मा! वे अड़तालीस संस्कार कौन से हैं? कृपा करके मुझे उनके बारे में बताएं”। 

सुमन्तु मुनि राजा शतानीक को धर्म का मर्म समझाते हुए कहते हैं—”हे राजन! केवल जन्म लेने से ही जीवन सार्थक नहीं होता। वेदों में मनुष्य के जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए चालीस प्रकार के ‘संस्कारों’ का विधान है।

सबसे पहले, मनुष्य के जन्म और बचपन से जुड़े संस्कार आते हैं—जैसे गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकारके वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पञ्चमहायज्ञ (जिनसे देवता, पितरों, मनुष्य, भूत और ब्रह्मकी तृप्ति होती है), सप्तपाकयज्ञ-संस्था—अष्टकाद्वय, पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री (शूलगव) तथा आश्वयुजी, सप्तहविर्यज्ञ-संस्था—अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबन्ध, सौत्रामणी और सप्तसोम-संस्था—अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। इन सबको मिलाकर कुल चालीस संस्कार होते हैं, जो एक ब्राह्मण के जीवन को तप की तरह निखारते हैं।

किंतु राजन! केवल बाहरी संस्कारों से ही ईश्वर नहीं मिलते। संस्कारों के साथ-साथ मनुष्य के भीतर ‘आठ आत्मगुण’ भी होने चाहिए। जिनके पास ये गुण होते हैं, वही ब्रह्म (ईश्वर) को प्राप्त कर पाते हैं। वे आठ दिव्य गुण इस प्रकार हैं:

  1. अनसूया (ईर्ष्या न करना): इसका अर्थ है—दूसरों के गुणों में कभी दोष न ढूँढना। अपने गुणों का बखान न करना और दूसरों के गुण देखकर ईर्ष्या करने के बजाय प्रसन्न होना।
  2. दया: चाहे अपना हो या पराया, मित्र हो या शत्रु, सबके साथ एक समान प्रेमपूर्ण व्यवहार करना और दूसरों का दुःख दूर करने की चाह रखना ही दया है।
  3. क्षान्ति (क्षमा): यदि कोई मन, वचन या शरीर से आपको कष्ट भी पहुँचाए, तो भी उस पर क्रोध न करना और न ही बदले की भावना रखना।
  4. शौच (पवित्रता): अभक्ष्य (न खाने योग्य) वस्तुओं का त्याग करना, बुरे लोगों की संगति से दूर रहना और सदा अच्छे आचरण में रहना ही सच्ची पवित्रता है।
  5. अनायास (सहजता): शरीर को हठपूर्वक कष्ट देकर कोई काम नहीं करना और छोटी-छोटी बातों के लिए जीवन को जोखिम में न डालना।
  6. मंगल: नित्य अच्छे और कल्याणकारी कार्य करना और बुरे कर्मों का त्याग करना ही मंगल है।
  7. अकार्पण्य (उदारता): दीनता न दिखाना और कंजूसी न करना। अपनी मेहनत और न्याय से कमाए हुए धन में से उदारतापूर्वक दान करना।
  8. अस्पृहा (संतोष): ईश्वर की कृपा से जो भी थोड़ा-बहुत मिल जाए, उसी में संतुष्ट रहना और दूसरों के धन को देखकर ललचाना नहीं।

हे राजन! जिस मनुष्य का जीवन इन चालीस संस्कारों से शुद्ध हुआ हो और जिसके हृदय में ये आठों गुण विराजमान हों, वह निश्चित रूप से ब्रह्मलोक का अधिकारी बनता है और उसे मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति होती है।” इसी के साथ आज की पावन कथा को हम यहीं विराम देते हैं। अगले भाग में हम भविष्य महापुराण के आगे के अद्भुत प्रसंगों का वर्णन करेंगे। मेरी आपसे विनती है कि इस आध्यात्मिक सफर में हमारे साथ निरंतर जुड़े रहें और धर्म-लाभ उठाएं।भगवान आप सबका कल्याण करें।  जय श्रीमन्नारायण!

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