लेखक- धनवंश पंडित via NCI
Aghori Tantra : आप सभी को जय श्री महाकाल! भारतीय आध्यात्म की दुनिया में अगर कोई मार्ग सबसे ज्यादा रहस्यमयी, डरावना लेकिन पवित्र माना जाता है, तो वह है ‘अघोर पंथ’। जब हम काशी के मणिकर्णिका घाट या उज्जैन के शमशान की कल्पना करते हैं, तो धधकती चिताओं के बीच राख लपेटे बैठे साधु का चित्र मन में उभरता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अघोरी होने का असली मतलब डरावना दिखना नहीं, बल्कि ‘अ-घोर’ होना है? संस्कृत में ‘घोर’ का अर्थ होता है अंधेरा या डरावना, और ‘अघोर’ का अर्थ है जिसमें कोई डर न हो, जो प्रकाश की ओर ले जाए। यानी अघोरी वह है जो जीवन के सबसे भयानक पहलुओं में भी रोशनी देख सके। यह लेख आपको उसी दुनिया की सैर कराएगा जहाँ समाज के नियम खत्म होते हैं और शिव का सत्य शुरू होता है।
शिव और शव के बीच की साधना
अघोरियों के लिए यह पूरी दुनिया भगवान शिव का ही एक खेल है। हम आम लोग जिसे ‘शव’ या लाश मानकर डरते हैं और जल्दी से जल्दी जला देना चाहते हैं, अघोरी उसे ‘शिव’ का ही एक रूप मानते हैं। अघोर विद्या मानती है कि जो भी इस ब्रह्मांड में मौजूद है, वह परमात्मा का हिस्सा है—चाहे वह सुगंधित फूल हो या सड़ता हुआ मांस। समाज ने अपनी सुविधा के लिए चीजों को ‘अच्छा’ और ‘बुरा’ या ‘पवित्र’ और ‘अपवित्र’ में बांट रखा है। अघोरी इसी भेदभाव को मिटाने के लिए शमशान में रहते हैं। वे शमशान की राख (भस्म) को अपने शरीर पर इसलिए लगाते हैं ताकि उन्हें हर पल याद रहे कि यह शरीर नश्वर है और अंत में इसे राख ही बन जाना है। यह साधना उन्हें अहंकार से मुक्त करती है।
अघोर पंथ का इतिहास और बाबा कीनाराम का प्रभाव
अघोर परंपरा बहुत प्राचीन है और माना जाता है कि भगवान दत्तात्रेय इस परंपरा के आदि गुरु थे। लेकिन कलयुग में अघोर पंथ को संगठित रूप देने और समाज सेवा से जोड़ने का श्रेय ‘बाबा कीनाराम’ को जाता है। 17वीं शताब्दी में वाराणसी में बाबा कीनाराम ने अघोर पीठ की स्थापना की थी, जो आज भी अघोरियों का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है। बहुत कम लोग जानते हैं कि बाबा कीनाराम ने अघोर विद्या का इस्तेमाल केवल खुद के मोक्ष के लिए नहीं, बल्कि उस समय के हरिजनों और सताए हुए लोगों की सेवा के लिए किया था। यह साबित करता है कि असली अघोरी वह नहीं जो केवल जादू-टोना करे, बल्कि वह है जो समाज के ठुकराए हुए लोगों को गले लगाए। उनका दर्शन था कि ‘राम’ केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हर पीड़ित इंसान के अंदर बसता है।
खान-पान और ‘जूठन’ के पीछे का गहरा विज्ञान
अक्सर अघोरियों के खान-पान को लेकर लोगों में घृणा होती है। यह सच है कि कठिन साधना के दौरान अघोरी वह सब कुछ खा सकते हैं जिसे सभ्य समाज वर्जित मानता है—चाहे वह जूठा भोजन हो या जानवर का मांस। लेकिन इसके पीछे एक गहरा मनोवैज्ञानिक तथ्य है। अघोरी तंत्र का मानना है कि जब तक आपके मन में यह भाव है कि “यह खाना गंदा है” और “यह खाना अच्छा है”, तब तक आप द्वैत (Duality) में फंसे हैं। ईश्वर को पाने के लिए अद्वैत (Non-duality) में जाना पड़ता है, जहाँ सब कुछ एक समान हो। जब एक अघोरी वह चीज खाता है जिसे देखकर आम इंसान को उल्टी आ जाए और फिर भी उसका मन शांत और ईश्वर में लीन रहे, तब माना जाता है कि उसने अपनी इंद्रियों और मन पर पूरी तरह विजय प्राप्त कर ली है। यह केवल खाने की बात नहीं है, यह मन की घिन को मारने की प्रक्रिया है।
आधुनिक युग में अघोर का महत्व और हमारी गलतफहमियां
आज के सोशल मीडिया के दौर में अघोरियों को अक्सर गलत तरीके से पेश किया जाता है। फिल्मों और कहानियों ने यह भ्रम फैला दिया है कि अघोरी केवल काला जादू करते हैं या लोगों को नुकसान पहुंचाते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि एक सच्चा अघोरी ‘समदर्शी’ होता है, वह किसी का बुरा नहीं कर सकता क्योंकि उसे सब में शिव दिखते हैं। आज के तनावपूर्ण जीवन में हम अघोर दर्शन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। हम अपनी छोटी-छोटी परेशानियों, असफलता के डर और लोग क्या कहेंगे, इन चिंताओं में घिरे रहते हैं। अघोर दर्शन हमें सिखाता है कि जिस दिन हमने ‘मौत के डर’ को जीत लिया, उस दिन जीवन की छोटी-मोटी परेशानियां बेमानी हो जाएंगी।
अंत में, अघोरी तंत्र कोई जादू का तमाशा नहीं, बल्कि चेतना की सबसे ऊंची अवस्था है। यह रास्ता हर किसी के लिए नहीं है, क्योंकि यह तलवार की धार पर चलने जैसा है। लेकिन अघोरियों का अस्तित्व हमें यह याद दिलाता रहता है कि सुंदरता केवल साफ-सुथरी चीजों में नहीं है, बल्कि जीवन के हर रूप में दिव्यता है। शमशान, जिसे हम अंत मानते हैं अघोरियों के लिए वही नई शुरुआत है। वे हमें सिखाते हैं कि अगर हम अपनी कमियों, अपने अंधेरे और अपने डर को स्वीकार कर लें, तो हम भी इसी जीवन में मोक्ष का अनुभव कर सकते हैं। यही शिव का असली संदेश है। जय श्री महाकाल!
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