Khana jhootha hai : जूठन अर्थात ऐसा भोजन जो किसी और ने पहले खाया हो, उसे क्यों नहीं करना चाहिए और क्या कभी जूठन खाने में कोई लाभ भी हो सकता है, इस विषय पर विस्तृत चर्चा करते हैं। सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि जूठन से बचने की परंपरा हमारे समाज में बहुत पुरानी है। इसका कारण न केवल शास्त्रीय और धार्मिक मान्यताएं हैं बल्कि वैज्ञानिक, सामाजिक और मानसिक पक्ष भी हैं। एक ओर जहां जूठन न करने को शुद्धता, पवित्रता और मर्यादा से जोड़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर इसके पीछे इंसानी स्वास्थ्य एवं सोच पर होने वाले प्रभाव भी शामिल हैं।
सबसे पहले एक महान संत की बात बताते हैं जिन्होंने कहा कि जब हम किसी धार्मिक सभा या पंगत (बैठक) में भोजन करते हैं, तो भोजन के बाद जो प्रसाद के छोटे-छोटे कण (particles) बच जाते हैं, उन्हें श्रद्धा से लेना चाहिए। ये कण उष्ट या शीत प्रसाद (leftover sacred food) कहलाते हैं। इन्हें ग्रहण करने से मनुष्य का कल्याण होता है और पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि जो जूठन या बचा-खुचा खाना अस्वच्छ हो, उसे खाने से लाभ होगा। इसके पीछे सूक्ष्म संबंध यह है कि श्रद्धा से ग्रहण किया गया उष्ट पवित्र होता है, और उसमें भक्तों का प्रेम, भक्ति और पवित्रता शामिल होती है, जो लेने वाले के अंदर सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती है।
जूठन न करने की मुख्य वजह यह है कि जिस व्यक्ति के द्वारा वह भोजन पहले खाया गया है, उसके अंदर जन्मांतरीय संस्कार (past life impressions), सोच, व्यवहार, और शारीरिक रोग भी हो सकते हैं, जो जूठन के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी के अंदर बुरी आदतें, नकारात्मक विचार या कोई शारीरिक रोग हैं, तो उनकी जूठा किया हुआ भोजन ग्रहण करने से उसी का प्रभाव दूसरे पर भी पड़ सकता है। इसलिए शास्त्र और संत कहते हैं कि जूठन खाने से बुद्धि और चरित्र बिगड़ सकता है। वही दूसरी ओर साधु-संतों के आसन और वासन (बैठने के स्थान और वस्त्र) बहुत पवित्र होते हैं क्योंकि वे हर समय भजन और ध्यान में लगे रहते हैं। इसलिए उनके यहां के भोजन के अभाग्यजात कण जिन्हें हम उष्ट या शीत प्रसाद कहते हैं, वे शुद्ध और पुण्य से भरपूर होते हैं। जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से उन्हें ग्रहण करता है, उसके जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
कई महान संतों और महापुरुषों के जीवन से उदाहरण भी मिलते हैं, जहाँ उन्होंने जूठे भोजन या प्रसाद से अद्भुत लाभ प्राप्त किया। एक वृंदावन की घटना में एक महात्मा मिश्री (sweet) चूस रहे थे, जिससे आसपास मौजूद लोगों को दिव्य दृष्टि और अनुभव हुए। एक सिद्ध महात्मा ने भी जूठा छोछा (छाछ और राबड़ी) श्रद्धा पूर्वक ग्रहण किया, जिससे उन्हें आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त हुई। दूसरी ओर, कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ जूठा भोजन ग्रहण करना, श्रद्धा और भक्ति के साथ हो तो उसमें छुपे आध्यात्मिक प्रभावों से व्यक्ति का उद्धार हो सकता है। तानसेन और बिहारी जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञों की कहानियां हैं कि उन्होंने गुरु द्वारा दिया गया अधरामृत (छोटा कण) श्रद्धा पूर्वक ग्रहण कर संगीत में अद्भुत सिद्धियां पाईं।
लेकिन व्यक्ति की श्रद्धा और भावना सबसे महत्वपूर्ण होती है। बिना श्रद्धा और सही भाव के जूठा भोजन ग्रहण करना अशुद्ध माना जाता है और इससे हानि भी हो सकती है। इसलिए इसे देखने-देखाने या नकली ढंग से ग्रहण करना लाभकारी नहीं होता। जूठन न करने का सामाजिक पक्ष भी है। यह मर्यादा और स्वच्छता का प्रतीक है। दूसरों के छुए भोजन को ग्रहण करने से सामाजिक दूरी बनती है, और अस्वच्छता का प्रभाव होता है। यह नियम इसलिए भी है कि जूठा ग्रहण करने से शरीर में रोग भी फैल सकते हैं।
यहाँ एक महत्वपूर्ण बात यह भी आई है कि जूठा भोजन लेने से व्यक्ति के संस्कार प्रभावित हो सकते हैं, जो मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकता है। इसीलिए पुराने संत और ऋषि जूठे भोजन को न खाने की सलाह देते रहे हैं। कई महापुरुषों ने अपने जीवन में जूठा ग्रहण करने के लाभों का अनुभव सुनाया है, जो कि उन संतों की पूर्ण पुण्यता और श्रद्धा के कारण संभव हुआ। लेकिन सामान्य लोगों के लिए यह त्याग और सतर्कता आवश्यक है। अंत में, यह भी कहा गया कि जो लोग पूर्ण भक्तिमय और पवित्र अंतःकरण वाले होते हैं, उनके छुआ हुआ भोजन ग्रहण करना अलग प्रकार की ऊर्जा और भक्ति ला सकता है। लेकिन इसके लिए भी वे संत या महापुरुष होने चाहिए जिनका हृदय और व्यवहार पूर्ण रूप से शुद्ध हो।
इस दृष्टिकोण से जूठा भोजन खाने से बचना चाहिए, क्योंकि अज्ञानता, अशुद्धता और नकारात्मकता जूठे भोजन के माध्यम से दूसरे पर प्रभाव डाल सकती है। परन्तु श्रद्धा, भक्ति और शुद्ध संस्कार वाले संतों के उष्ट से लाभ भी संभव है। संतों के चरणामृत और उष्ट का महात्म्य (importance) अत्यंत बड़ा है, जो जीवन की बुराइयों को मिटाकर साधक को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है। इसलिए हमें हमेशा श्रद्धा पूर्वक और सही भावना से ही ऐसे भोजन को ग्रहण करना चाहिए।
इस प्रकार, जूठा भोजन न करने के धार्मिक, सामाजिक, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक कारण स्पष्ट हैं। श्रद्धा, पवित्रता और सत्कार्य की भावना से ही इसका सही और लाभकारी परिणाम मिलता है। दूसरों के जूठे भोजन या प्रसाद को अनादर या अविश्वास से नजरअंदाज करना चाहिए, और यह भी समझना चाहिए कि श्रद्धा और सम्मान के बिना कोई भी कर्म लाभदायक नहीं होता। इस विषय पर विस्तृत विचार करने से यह साफ होता है कि जूठन न करने की परंपरा हमारे जीवन, मन और शरीर की सफाई बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण तरीका है, जो हमें शुद्धता और भक्ति के मार्ग पर रखता है। साथ ही, श्रद्धा से ग्रहण किया गया उष्ट हमारे लिए कल्याणकारी हो सकता है, जिससे जीवन में आध्यात्मिक उन्नति और मन की शांति संभव होती है।