लेखिका – मीनाक्षी लिंगवाल via NCI
उत्तराखंड के श्रीनगर से लगभग 15 किलोमीटर दूर अलकनंदा नदी के किनारे स्थित धारी देवी (Maa Dhari Devi) मंदिर न केवल एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, बल्कि समूचे उत्तराखंड की आस्था और सुरक्षा का केंद्र भी है। स्थानीय विश्वास के अनुसार, धारी देवी उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों – केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री – की रक्षा करने वाली देवी हैं, जिन्हें ‘चार धामों की संरक्षक’ (protector) के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि माता धारी देवी एक दिन में तीन रूप बदलती हैं – सुबह एक बच्चे के रूप में, दोपहर में एक युवती के रूप में और रात को वृद्धा के रूप में प्रकट होती हैं। इस मंदिर का विशेष स्थान हर दिन नए भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है और तमाम श्रद्धालु यहाँ माता का आशीर्वाद लेने आते हैं।
शास्त्रों और स्थानीय कहानियों के अनुसार, धारी देवी की मूर्ति स्वयंभू (self-manifested) है, यानी जिसे किसी ने बनाया नहीं, बल्कि स्वतः प्रकट हुई। पालने की जिम्मेदारी पंडित परिवारों की है और कहा जाता है कि बीते 500 वर्षों से यही परिवार यहाँ पूजा-अर्चना करता आ रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, द्वापर युग में पांडवों ने भी यहाँ पर पूजा की थी और धारी गाँव, जो मंदिर के सामने स्थित है, द्वापर काल का बताया जाता है।
मंदिर का इतिहास – चट्टान, कनेर का वृक्ष और देवी का स्थान
धारी देवी मंदिर का इतिहास अद्भुत, रहस्यपूर्ण और प्रभावशाली घटनाओं से भरा हुआ है। शुरुआती समय में मंदिर एक विशाल चट्टान पर स्थित था, जिस पर एक कनेर का वृक्ष भी था। यह वृक्ष कभी बड़ा नहीं हुआ और न ही छोटा, वर्षों तक उसी अवस्था में बना रहा – जिसे यहाँ आने वाले लोग देवी का प्रिय मानते थे। मंदिर खुले आकाश के नीचे था और 12 महीने उसमें फूलों की वर्षा होती रहती थी। माना जाता है कि कनेर के फूल माता को अत्यंत प्रिय हैं और मंदिर में पूजा के दौरान इन फूलों का विशेष महत्व है।
साल 2013 की आपदा से पहले, मंदिर जिस चट्टान पर था, वह शेर के आकार जैसी आकृति में दिखाई देती थी, जिससे मंदिर क्षेत्र की भव्यता और दिव्यता और अधिक बढ़ जाती थी। लेकिन जब जल विद्युत परियोजना (hydroelectric project) का काम शुरू हुआ, तो कई कंपनियों ने वादा किया कि वे देवी के स्थान में कोई छेड़छाड़ नहीं करेंगी। बाद में एक कंपनी ने चट्टान को ऊपर उठाने का निर्णय लिया और मंदिर का परिवर्तन शुरू हुआ। स्थानीय लोगों और पुजारियों का विरोध भी हुआ, लेकिन अंततः डैम का निर्माण हुआ और देवी को नए स्थान पर 16 जून 2013 को शिफ्ट करना पड़ा।
2013 की प्राकृतिक आपदा – मंदिर के स्थानांतरण की कहानी
साल 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र में भीषण प्राकृतिक आपदा (disaster) आई। जब डैम का निर्माण हो गया था, तब कंपनी द्वारा देवी को क्रेन के जरिए ऊपर ले जाया गया। यह घटना 16 जून 2013 को हुई। इसके दो घंटे बाद, व्यापक त्रासदी आई – जिसके बाद धारी देवी की ख्याति पूरे उत्तराखंड ही नहीं, भारतभर में फैल गई। लोगों ने मान्यता बनाई कि देवी के स्थानांतरण और चट्टान से हटाने के कारण देवी क्रोधित हुईं, जिससे प्रचंड आपदा आई। हालांकि, पुजारी का कहना है कि देवी कभी क्रोधित नहीं होतीं, लेकिन अगर शक्ति के साथ छेड़छाड़ होती है तो इसका परिणाम सबको झेलना पड़ता है।
आपदा के बाद सरकार ने स्थिति को सुधारा और 10 साल लगे नए भव्य मंदिर के निर्माण में। लगभग 50 करोड़ रुपये खर्च कर 2023 में उसी मूल स्थान पर माता की स्थापना की गई। उस चट्टान को फिलिंग कर ऊपर लाया गया, जहां पहले मंदिर था। स्थापना के समय त्रियुगी नारायण की अग्नि लाकर पवित्र यज्ञ किया गया, जिसकी अग्नि आज भी अविरल चल रही है। इससे मंदिर और क्षेत्र की धार्मिकता तथा दिव्यता में और अधिक वृद्धि हुई।
धार्मिक परंपराएँ और बलि प्रथा का अंत
मंदिर में पहले शमशान वासनी (cremation ground) देवी के रूप में पूजा होती थी। पहले यहाँ बलि देने की प्रथा थी, जिसमें एक दिन में कई बकरों की बलि देकर मांस पूजा के लिए चढ़ाया जाता था। लेकिन बीते कुछ सालों में समाज और पुजारियों के सहयोग से इस प्रथा का अंत किया गया। अब मंदिर में यज्ञ, भंडारा और घंटियाँ चढ़ाने की परंपरा है। भक्त अपनी मनोकामनाएँ पूरी होने पर घंटी, छत्र या भंडारे का आयोजन करते हैं। मंदिर के स्टोररूम में हजारों घंटियाँ जमा हैं, जिनके लगाने के लिए हाल में विस्तार का विचार चल रहा है।
यहाँ एक खास श्लोक भी है जिसमें माता के तीनों रूपों का उल्लेख है – सुबह बालिका अवस्था, दोपहर युवती रूप, और रात वृद्धा रूप। भक्तों के लिए देवी का यह दिव्य स्वरूप बहुत ही आकर्षण का केंद्र है। मंदिर के पुजारी प्रात:काल से श्रृंगार पूजा शुरू करते हैं, जिसमें डेढ़ घंटा लगता है। आरती के बाद प्रसाद वितरण होता है और भक्तों की पूजा-अर्चना के लिए मंदिर खुलता है।
आर्थिक और सामाजिक प्रभाव – मंदिर से चलती आजीविका
धारी देवी मंदिर न केवल आस्था का केन्द्र है, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए आजीविका (livelihood) का भी प्रमुख स्रोत बन चुका है। मंदिर के चारों ओर कई दुकाने हैं, यहाँ प्रसाद, फूल, पूजा सामग्री, और अन्य वस्तुओं की बिक्री होती है। यही वजह है कि सालाना करोड़ों रुपये का व्यवसाय यहाँ होता है। ट्रक, टैक्सी, दुकानदार, प्रसाद विक्रेता तथा स्थानीय परिवहन सबका रोजगार इसी मंदिर से चलता है। मंदिर की पुनर्स्थापना के बाद से व्यवसाय में और अधिक विस्तार हुआ है, जिससे क्षेत्र के अधिक लोगों को रोजगार मिल सका है।
मंदिर की स्थापत्य शैली (architecture) को ‘चतुरा शैली’ कहा जाता है, जिसमें देवदार लकड़ी का उपयोग किया गया है। नए भवन में पुराने चट्टान के नीचे से कुछ पत्थर लाकर भूमि से मंदिर का विशेष जुड़ाव बनाया गया है, जिससे मंदिर का प्राचीन महत्व अक्षुण्ण बना रहता है। 2013 की आपदा के बाद कठोर बदलावों के बावजूद यह मंदिर आस्था का मजबूत प्रतीक बना हुआ है।
पौराणिक कथाएँ, मान्यताएँ और देवी की उत्पत्ति
धारी देवी के उत्पत्ति की कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। कुछ के अनुसार, देवी कालीमठ की काल शिला में उत्पन्न हुई थीं और वहाँ रक्तबीज के वध के बाद इस क्षेत्र में आई थीं। वहीं, दूसरी कथा के अनुसार, जगतगुरु शंकराचार्य के समय यहाँ हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना हुई, वरना पहले यहाँ बौद्ध धर्म ज्यादा लोकप्रिय था। शक्ति स्वरूपा धारी देवी के दर्शन, विशेष पूजा-अर्चना और आरती का समय अलग-अलग ऋतुओं में बदलता रहता है। वहीं, मंदिर की छत नहीं है क्योंकि माता खुले आकाश में विराजमान रहती हैं और उन्हें बंद कमरे के भीतर रखना वर्जित है।
यहाँ पर एक मान्यता है कि धारी देवी की तस्वीर लेना उचित नहीं होता है। कई बार जिन लोगों ने तस्वीरें ली हैं, उन्होंने बाद में वही फोटो वापस मंदिर लाकर रख दी या नदी में प्रवाहित (immersion) कर दी। यहाँ के पुजारियों का कहना है कि देवी की पूजा करना बहुत कठिन है, इसलिए उनकी तस्वीरें घर ले जाकर पूजा करना आसान नहीं। इसी वजह से मंदिर की छवि या फोटो रखना आस्थावान लोगों के लिए कठिन साबित होता है।
भक्तों के लिए संदेश – श्रद्धा के साथ आओ, धर्म का पालन करो
मंदिर के पुजारी और स्थानीय लोग भक्तों से अपील करते हैं कि यहाँ आने वाले श्रद्धालु धार्मिक भावना लेकर आए, पर्यटन के स्थान पर इसे आस्था का केंद्र माने। श्रद्धा से पूजा करें, मनोकामना पूरी होने पर घंटी या यज्ञ करें और यहाँ का माहौल शांत और सकारात्मक रखें। मंदिर में कोई भी पंडित इतना पैसा माँगने का बात नहीं करता, बल्कि श्रद्धा की पूजा होती है। अन्य मंदिरों के विपरीत, यहाँ खुला वातावरण रहता है और कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं होती।
मंदिर में हर वर्ष मकर संक्रांति, बसंत पंचमी, शिवरात्रि, नवरात्रि आदि पर्वों पर विशेष आयोजन होते हैं। स्थापना के समय त्रियुगी नारायण की अग्नि लाकर हवन किया जाता है और आज भी यह पवित्र अग्नि लगातार जलती रहती है। पूजा में कई ब्राह्मणों को बुलाया जाता है और नए भवन की प्रतिष्ठा के समय 25 ब्राह्मणों द्वारा पाँच दिन का महायज्ञ किया गया था।
मंदिर का खुलने-बंद होने का समय और प्रमुख दर्शन विधि
मंदिर के खुले और बंद होने का समय ऋतुओं के अनुसार बदलता रहता है। शीतकाल में मंदिर सुबह 7:00 बजे खुलता है, जबकि ग्रीष्मकाल में आरती 6:30 बजे होगी। पुजारी लगभग 4:00 बजे से श्रृंगार पूजा में लग जाते हैं। एक-डेढ़ घंटे पूजा के बाद, आरती होती है और फिर प्रसाद वितरण के बाद भक्तों को पूजा और दर्शन का अवसर मिलता है। जो भक्त जल्दी में होते हैं वे प्रसाद चढ़ाकर सीधे दर्शन करते हैं, जबकि जो विधिवत पूजा करना चाहते हैं वे बैठकर पूरी विधि अनुसार पूजा करते हैं।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर हर भक्त का स्वागत होता है। दर्शन के बाद भक्त घंटियाँ, छत्र, यज्ञ, भंडारा आदि आयोजनों के द्वारा अपनी श्रद्धा दिखाते हैं। नए भवन में स्थापना के समय आग जलाने का संकल्प लिया गया था, जो आज भी अनवरत जल रही है। पिछले कुछ वर्षों में मंदिर का विस्तार काफी हुआ है और हर दिन यहाँ भक्तों का आगमन बढ़ता जा रहा है।