Shrimad Bhagwat Puran : Param Dharma का Secret खुल गया!

By NCI
On: October 4, 2025 8:40 AM
bhagwat puran

श्रीमद्भागवत (Shrimad Bhagwat Puran) एक ऐसा पवित्र ग्रंथ (Sacred Scripture) है, जिसमें धर्म (Religion) का अत्यंत विलक्षण (Unique) और व्यापक (Comprehensive) दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। प्राचीन काल से लेकर आज तक भारतीय समाज में धर्म का स्थान अपरिवर्तनीय (Unchangeable) रहा है। धर्म का वास्तविक तात्पर्य (Real Meaning) केवल पूजा-पाठ, व्रत या अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के आचरण, सोच और जीवन जीने की पद्धति (Way of Living) से जुड़ा हुआ है। इस ग्रंथ में धर्म शब्द पर अत्यंत विशेष चर्चा की गई है, जहाँ ‘धर्म: प्रोजित: कैतव:’ की व्याख्या की गई है। इसका तात्पर्य है कि श्रीमद्भागवत में वे धर्म जो केवल स्वार्थ (Selfish Motives) या फल प्राप्ति हेतु किए जाते हैं, उन्हें त्याज्य (Abandonable) बताया गया है। यहाँ असली धर्म वही है, जो स्वार्थ, मोक्ष (Salvation) या स्वर्ग (Heaven) की इच्छा से रहित हो और केवल भगवान के प्रति प्रेम (Love for God) से प्रेरित हो।

धर्म का यह दृष्टिकोण मानव जीवन में गहरी शांति और संतुष्टि प्रदान करने वाला है। जब कोई व्यक्ति केवल स्वार्थ के लिए कर्म करता है, तब वह धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं पा सकता। संसार में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में धर्म का पालन करता है, चाहे वह कृत्रिम (Artificial) हो या वास्तविक। इसी को श्रीमद्भागवत में ‘परम धर्म’ (Supreme Religion) कहा गया है। यहाँ उल्लेख किया गया है कि सर्वोच्च धर्म वह है, जिसमें केवल परमार्थ (Altruism) और भगवान के प्रति प्रेम आवश्यक है। यह दृष्टिकोण आज के समाज के लिए भी उतना ही प्रासंगिक (Relevant) है, जितना प्राचीन काल में था।


स्वर्ग प्राप्ति का धर्म

श्रीमद्भागवत में पहले प्रकार के धर्म को ‘स्वर्ग प्राप्तक धर्म’ (Path Leading to Heaven) कहा गया है। यह वह धर्म है जिसका उद्देश्य (Goal) किसी भी प्रकार से स्वर्ग की प्राप्ति (Heavenly Abode) करना है। प्राचीन वेदों और पूर्व मीमांसा (Purva Mimansa) के अनुसार यह माना गया कि अच्छे कर्म, यज्ञ (Sacrificial Rites), और धार्मिक अनुष्ठानों (Religious Practices) के माध्यम से स्वर्ग की प्राप्ति संभव है। लोग यह समझते थे कि स्वर्ग में अपार सुख (Pleasures) और विलासिता (Opulence) है, तथा वहाँ जाना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। परन्तु श्रीमद्भागवत के अनुसार यह केवल एक सामान्य (Ordinary) धर्म है, जो भौतिक सुखों (Material Pleasures) तक ही सीमित है।

ऐसे धर्म का उदाहरण दिया गया है – जैसे एक ब्राह्मण (Brahmin) जो अपने धर्मध्यान या कर्मकांड में गलती करता है, तो कोई ऋषि (Sage) आकर उसे सही मार्ग दिखाता है, और फिर वह स्वर्ग प्राप्त करता है। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि यह धर्म मोक्ष (Liberation) या उत्कर्ष (Elevation) नहीं है, क्योंकि उसका उद्देश्य केवल स्वर्ग के सुखों की प्राप्ति है। भागवत कथा के अनुसार स्वर्ग एक निश्चित समय के लिए मिलने वाला फल है, और उसके बाद व्यक्ति पुनः संसार में लौट आता है। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में केवल स्वर्ग के लिए किए गए कर्मों को सर्वोच्च धर्म नहीं माना गया है।

स्वर्ग प्राप्तक धर्म में उन धार्मिक कार्यों की व्याख्या की गई है, जो न केवल समाज को नैतिकता (Morality) और संस्कार (Values) देते हैं, बल्कि व्यक्ति को समाज के प्रति उत्तरदायी (Responsible) बनाते हैं। लेकिन एक समय के बाद यह धर्म केवल उद्देश्य और लाभ की सीमा तक ही सीमित रह जाता है। इस अवस्था में भगवान का प्रगटन (Manifestation) होना दुर्लभ (Rare) है, क्योंकि यह पथ भक्ति-रहित (Without Devotion) है। सत्य यही है कि इस धर्म की परिधि केवल स्वर्ग तक सीमित है, और इससे आगे का लक्ष्य नहीं मिलता।


मोक्ष प्राप्ति का धर्म

दूसरे प्रकार का धर्म ‘मोक्ष प्राप्तक धर्म’ (Path Leading to Liberation) है। यह धर्म उन लोगों के लिए है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र (Cycle of Birth and Death) से छुटकारा (Freedom) पाना चाहते हैं। यह विचार वैदिक दर्शन (Vedic Philosophy) में अत्यंत महत्वपूर्ण है। मोक्ष का अर्थ आत्मा (Soul) का परमात्मा (Supreme Soul) में विलय (Merging) या संसार के बंधनों (Worldly Bondage) से पूर्ण मुक्ति (Complete Freedom) है। इस धर्म का आचरण (Practice) व्यक्ति को संसार के आकर्षण (Attractions) और इच्छाओं (Desires) से ऊपर उठाता है। लेकिन श्रीमद्भागवत में यह स्पष्ट किया गया कि मोक्ष भी परम धर्म की तुलना में द्वितीय स्थान (Second Place) पर है।

मोक्ष प्राप्तक धर्म को अपनाने वाले व्यक्ति योग (Yoga), तपस्या (Penance), साधना (Spiritual Practice) और विवेक (Discrimination) के माध्यम से अपने आत्मस्वरूप (True Nature) को पहचानते हैं। यहाँ मोक्ष वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति को अब संसार की कोई चाहत (Desire) नहीं रह जाती। वेदांत के अनुसार आत्मसाक्षात्कार (Self-Realization) यही मोक्ष है। लेकिन श्रीमद्भागवत में यह कहा गया है कि मोक्ष की अवस्था में भी यदि भगवान का प्रेम (Divine Love) नहीं है, तो वह भी सर्वोच्च नहीं मानी जाती।

ऐसे धर्म के अनेकों उदाहरण भागवत पुराण (Bhagavata Purana) तथा अन्य शास्त्रों (Scriptures) में मिलते हैं, जहाँ योग साधकों (Adept Yogis), तपस्वियों (Ascetics) और ज्ञानियों (Knowledge Seekers) ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए कठिन साधनाएँ (Rigorous Practices) की हैं। यद्यपि यह मार्ग आत्मोत्तरण (Self-Elevation) की ओर ले जाता है, परंतु यहाँ भी भगवान का सच्चा प्रेम (True Love) सर्वोपरि है। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में मोक्ष प्राप्तक धर्म को अति उच्च माना गया, लेकिन सर्वोपरि नहीं।


वैकुंठ प्राप्ति का धर्म

तीसरे प्रकार का धर्म ‘वैकुंठ प्राप्तक धर्म’ (Path Leading to Vaikuntha) है। वैकुंठ वह दिव्य लोक (Divine Abode) है, जहाँ भगवान विष्णु (Vishnu) स्वयं विराजते हैं। यह धर्म उन लोगों के लिए है, जो न केवल मोक्ष चाहते हैं, बल्कि भगवान के धाम (Abode) तक पहुँचने की इच्छा रखते हैं। श्रीमद्भागवत में उल्लेखित है कि ध्रुव (Dhruva) जैसे भक्तों ने नारद मुनि (Narada) के मार्गदर्शन (Guidance) से उस धर्म का पालन किया और भगवान के परम धाम वैकुंठ (Supreme Abode) की प्राप्ति की।

वैकुंठ प्राप्तक धर्म में प्रमुखता भक्ति (Devotion) को दी गई है, जहाँ भगवान की निष्काम (Desireless) भक्ति ही मुख्य साधन (Main Means) है। यहाँ जाति, सम्प्रदाय या धर्म (Sect) का कोई बंधन (Restriction) नहीं है, बल्कि केवल निर्मल (Pure) और निष्कलंक (Stainless) भक्ति ही भगवान को प्रसन्न (Pleased) कर सकती है। ऐसे धर्म का फल कभी नष्ट (Perishable) नहीं होता, और न ही वह कभी समाप्त (Finished) होता है। यह एक ऐसी अवस्था है, जहाँ जीव (Jiva) को भगवान की कृपा (Grace) और सान्निध्य (Proximity) अनायास (Effortless) प्राप्त हो जाता है।

श्रीमद्भागवत के अनुसार वैकुंठ प्राप्तक धर्म मोक्ष की तुलना में अति श्रेष्ठ (More Superior) है, क्योंकि इसमें भगवान के चरित्र, सौंदर्य (Beauty) और लीलाओं (Divine Plays) का साक्षात् अनुभव (Direct Experience) होता है। भगवान के धाम पहुँचना साधक (Seeker) के लिए अंतिम उद्देश्य (Final Goal) है। यह स्थिति केवल संयम (Restraint), सदाचार (Good Conduct) और सच्ची भक्ति (True Devotion) से ही संभव है। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत ने वैकुंठ प्राप्ति को मोक्ष से भी अत्यंत उत्कृष्ट (Excellent) और दुर्लभ कहा है।


भगवत प्रेम प्राप्ति का धर्म

चौथे और सबसे उच्चतम स्तर के धर्म के रूप में ‘भगवत प्रेम प्राप्तक धर्म’ (Path Leading to Divine Love) को बताया गया है। श्रीमद्भागवत में इस धर्म को ही परम धर्म (Supreme Religion) कहा गया है। इसमें भगवान के प्रति शुद्ध, निष्काम और अनन्य भक्तिपूर्ण प्रेम (Pure, Selfless, and Exclusive Love) को सर्वोच्च माना गया है। ऐसे प्रेम में किसी भी तरह की कामना (Desire), स्वार्थ (Selfishness), या फल की इच्छा (Expectation) नहीं होती। केवल भगवान के चरणों (Holy Feet) में प्रेम और समर्पण (Surrender) ही इस धर्म का सबसे बड़ा लक्षण (Sign) है।

शुकदेव जी (Sukdev Ji) के अनुसार कोई भी योगी (Yogi), तपस्वी (Ascetic), कर्मकांडी (Ritualist), या ज्ञानी (Knowledge Seeker) अपने साधनों (Practices) से भगवान को उतना सरलता (Easily) से प्राप्त नहीं कर सकते, जितना एक भक्त अपने प्रेम से कर सकता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार यहाँ भक्ति और प्रेम का स्थान सबसे बड़ा है। भगवान स्वयं भी अपने भक्तों के प्रेम में बंध जाते हैं और उनकी प्रत्येक इच्छा (Desire) को पूर्ण (Fulfill) करते हैं। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में अन्य धर्मों की तुलना में भगवत प्रेम को सबसे उच्चतम (Highest) और अनमोल (Invaluable) बताया गया है।

प्रेम प्राप्ति का धर्म सभी अन्य धर्मों, पंथों और साधनों (Means) से श्रेष्ठ है, क्योंकि यहाँ ‘सम्प्रतिपत्तिः भगवत्प्रेम’ (Attainment of Love for God) ही अंतिम लक्ष्य (Ultimate Goal) है। यह धर्म स्वयं भगवान के हृदय (Heart) की बात है, जिसे उन्होंने अपने शुद्ध भक्तों के लिए निर्धारित (Fixed) किया है। भगवत प्रेम न सिखाया जा सकता है, न ही छुपाया जा सकता है; यह तो केवल अनुभव (Experience) किया जाता है। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में इसका स्थान सबसे ऊपर है।


शुकदेव जी का निज मत

श्रीमद्भागवत में सुखदेव जी का अपना निजी मत (Personal Opinion) भी बहुत विशेष है। वे कहते हैं कि योग (Yoga), तपस्या (Austerity), और कर्म (Action) के मार्ग (Path) से भी भगवान की प्राप्ति तो संभव (Possible) है, लेकिन जितनी सरलता (Ease) से प्रेम (Love) के मार्ग से मिलती है, उतनी किसी अन्य मार्ग से नहीं। शुकदेव जी भावविभोर (Emotionally Charged) होकर सच्चे भक्त की स्थिति का वर्णन करते हैं, जिसमें भगवान केवल प्रेम के कारण ही अपने भक्तों के अधीन (Subservient) हो जाते हैं।

शुकदेव जी बताते हैं कि योगी, तपस्वी, कर्मकांडी—ये सब लोग शरीर (Body) और साधनों (Means) पर आधारित हैं। जब तक देहाभिमान (Body Consciousness) है, तब तक योग (Yoga), तप (Penance), और कर्मकांड (Rituals) का अस्तित्व (Existence) रहेगा। लेकिन जब देहाभिमान समाप्त हो जाता है, तब केवल प्रेम ही शेष (Remains) रह जाता है। इस प्रेम में अपनापन (Belongingness), स्नेह (Affection), और पूर्ण समर्पण (Complete Surrender) होता है, जिससे भगवान सबसे अधिक प्रसन्न (Pleased) होते हैं।

ज्ञानियों (Knowers) के लिए भी भगवान सरलता से उपलब्ध (Accessible) नहीं हैं, क्योंकि ज्ञान में अहंकार (Ego) और व्यक्तित्व (Individuality) का अंश (Particle) बना रहता है। वास्तविक हिंदू धर्म में ज्ञान के बिना प्रेम अधूरा (Incomplete) है, जबकि प्रेम के बिना ज्ञान निस्तेज (Lifeless) है। शुकदेव जी के विचार में भक्त ही वह पात्र (Eligible Person) है, जो भगवान को सबसे अधिक सरलता (Easily) और स्वतःस्फूर्त (Effortlessly) प्राप्त कर सकता है। उनके अनुसार यही सबसे बड़ा परम धर्म है।


योग, तपस्या और कर्मकांड का स्थान

श्रीमद्भागवत के दृष्टिकोण से योग (Yoga), तपस्या (Penances) और कर्म (Ritual Work) का भी अपना अलग-अलग स्थान (Place) है। योग के माध्यम से साधक (Practitioner) शरीर (Body), इंद्रियों (Senses) और चित्त (Mind) पर नियंत्रण (Control) करना सीखता है। विभिन्न प्रकार के योग जैसे कि हठ योग (Hath Yoga), राज योग (Raja Yoga), मंत्र योग (Mantra Yoga) आदि में साधक कई प्रकार के आसन (Posture), प्राणायाम (Breath Control), और ध्यान (Meditation) की क्रियाएँ (Actions) करता है। लेकिन इन सभी का आधार देह (Body) है।

तपस्या वह प्रक्रिया है, जिसमें साधक शरीर के सुखों (Physical Pleasures) का त्याग (Renunciation) करते हुए कठिन साधनाएँ (Difficult Practices) करता है, जिससे उसकी चेतना (Consciousness) शुद्ध (Pure) होती है और मन स्थिर (Stable) बनता है। कर्मकांड (Rituals) में जीवन का प्रत्येक पक्ष (Aspect) नियमों और विधियों (Rules and Regulations) के अधीन (Dependent) होता है, चाहे वह दैनिक जीवनचर्या (Daily Routine) हो या विशेष यज्ञ (Specific Rituals)। इन कार्यों के बिना शुचिता (Purity) प्राप्त करना असंभव (Impossible) है।

श्रीमद्भागवत मानता है कि ये तीनों मार्ग अत्यंत आवश्यक (Necessary) हैं, लेकिन इनकी उत्थान-सीमा (Elevation Limit) है। योग, तप और कर्म से भगवान की प्राप्ति तो होती है, लेकिन प्रेम के पथ पर चलकर भगवान की सहज प्राप्ति (Effortless Attainment) होती है। योगी (Yogi), तपस्वी (Ascetic) और कर्मकांडी (Ritualist) अपनी साधना (Practice) से भगवान को पाते हैं, लेकिन परम आनंद (Supreme Bliss) केवल प्रेम मार्ग (Path of Love) से हुआ संभव (Possible) है।

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