Trump’s Shocking Move: अमेरिका में अंग्रेजी जबरन लागू!

NCI

Trump’s Shocking Move

 अमेरिका में हाल ही में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला जब पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक नया आदेश जारी किया, जिसके तहत अंग्रेजी को अमेरिका की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया। इस फैसले ने देश में रहने वाले विभिन्न समुदायों, खासकर प्रवासियों (immigrants) के बीच हलचल मचा दी है। अमेरिका लंबे समय से विविध भाषाओं और संस्कृतियों का संगम रहा है, जहां लोग अलग-अलग भाषाओं में संवाद करते आए हैं। लेकिन इस नए फैसले के बाद ऐसा लग रहा है कि अब सिर्फ अंग्रेजी को ही महत्व मिलेगा, जिससे गैर-अंग्रेजी भाषी लोगों के लिए कठिनाइयां बढ़ सकती हैं।

अमेरिका में आधिकारिक रूप से कोई एक भाषा नहीं थी, हालांकि अंग्रेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा रही है। अब तक यहां सरकारी कामकाज, शिक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवाओं में कई भाषाओं का उपयोग किया जाता था, ताकि गैर-अंग्रेजी भाषी लोग भी सुविधाओं का लाभ उठा सकें। खासकर प्रवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों (minorities) के लिए सरकार अनुवाद सेवाएं (translation services) उपलब्ध कराती थी, जिससे वे अपनी मूल भाषा में सरकारी दस्तावेज समझ सकें और सरकारी सुविधाओं का लाभ ले सकें। लेकिन अब यह व्यवस्था खत्म होने की संभावना बढ़ गई है।

डोनाल्ड ट्रंप के इस फैसले का समर्थन और विरोध, दोनों ही हो रहे हैं। ट्रंप के समर्थकों का कहना है कि यह अमेरिका को एकजुट करने और प्रशासन को अधिक सुचारु बनाने का प्रयास है। उनका मानना है कि अमेरिका में रहने वाले सभी लोगों को अंग्रेजी सीखनी चाहिए, ताकि वे देश की मुख्यधारा में शामिल हो सकें। वे इसे 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' (Make America Great Again) के विजन का हिस्सा मानते हैं, जहां केवल अंग्रेजी भाषा पर ही जोर दिया जाएगा। लेकिन इस फैसले के आलोचकों का कहना है कि यह गैर-अंग्रेजी भाषी लोगों के लिए समस्याएं खड़ी करेगा और अमेरिका की बहुसांस्कृतिक पहचान (multicultural identity) को खतरे में डाल सकता है।

अमेरिका में लाखों प्रवासी रहते हैं, जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। इनमें भारतीय, चीनी, स्पेनिश, अरबी और अन्य भाषाएं बोलने वाले लोग शामिल हैं। खासकर स्पेनिश (Spanish) भाषा बोलने वालों की संख्या अमेरिका में बहुत अधिक है। अमेरिका की जनसंख्या लगभग 34 करोड़ है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का है जो अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में सहज महसूस करते हैं। अब यदि सरकारी कामकाज और सेवाएं केवल अंग्रेजी में दी जाएंगी, तो इन समुदायों को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

इतिहास में देखा जाए तो भाषा से जुड़े मुद्दों पर पहले भी संघर्ष हुए हैं। भारत में भी भाषा को लेकर विवाद होते रहे हैं, जहां हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास कई बार किया गया, लेकिन तमिलनाडु और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में इसका कड़ा विरोध हुआ। इसी तरह, अमेरिका में भी इस फैसले से कई राज्यों में असहमति देखी जा रही है। अमेरिका में कुल 50 राज्य हैं, जिनमें से 30 ने पहले ही इस नीति को लागू कर दिया है। लेकिन कुछ राज्य अब भी इसे लेकर दुविधा में हैं।

इस फैसले के पीछे एक बड़ी वजह यह भी मानी जा रही है कि सरकार अनुवाद सेवाओं पर होने वाले खर्च को कम करना चाहती है। अमेरिका सरकार गैर-अंग्रेजी भाषी लोगों की मदद के लिए अनुवादकों (translators) की सेवाएं उपलब्ध कराती थी, जिससे वे सरकारी दफ्तरों में अपनी समस्याओं का समाधान पा सकें। अब सरकार का मानना है कि इन सेवाओं पर खर्च होने वाले पैसे को बचाया जा सकता है। लेकिन इस बचत का सीधा असर उन लोगों पर पड़ेगा, जो अभी तक इन सेवाओं का लाभ ले रहे थे।

एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अमेरिका में कई सरकारी और निजी संस्थान बहुभाषीय (multilingual) सेवाएं प्रदान करते हैं, ताकि विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोग सरकारी सुविधाओं, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा प्रणाली का लाभ उठा सकें। लेकिन इस नए आदेश के बाद अब इन सेवाओं में कटौती की जा सकती है, जिससे गैर-अंग्रेजी भाषी लोगों के लिए कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से अमेरिका में रहने वाले प्रवासियों की स्थिति कमजोर हो सकती है। वे पहले ही कई तरह की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, और अब भाषा की बाधा (language barrier) उनके लिए नई समस्या बन सकती है। कई प्रवासी समुदायों के नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई है और इसे भेदभावपूर्ण (discriminatory) करार दिया है। उनका कहना है कि यह नीति अमेरिका में नस्लीय भेदभाव (racial discrimination) को बढ़ावा दे सकती है, क्योंकि यह विशेष रूप से गैर-अंग्रेजी भाषी समुदायों को प्रभावित करेगी।

इसके अलावा, अमेरिका में बाइलिंगुअल (bilingual) शिक्षा प्रणाली को भी इस फैसले से नुकसान हो सकता है। कई स्कूल और विश्वविद्यालय अभी तक ऐसे प्रोग्राम चलाते आए हैं, जिनमें छात्रों को उनकी मातृभाषा में भी पढ़ाई करने की सुविधा मिलती थी। अब इन कार्यक्रमों पर भी संकट आ सकता है, क्योंकि सरकारी स्तर पर अब केवल अंग्रेजी को ही प्राथमिकता दी जाएगी। इससे उन छात्रों को दिक्कत होगी, जिनकी पहली भाषा अंग्रेजी नहीं है।

डोनाल्ड ट्रंप की इस नीति का असर न केवल प्रवासियों पर पड़ेगा, बल्कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था और वैश्विक छवि (global image) पर भी हो सकता है। अमेरिका हमेशा से एक बहुसांस्कृतिक देश रहा है, जहां विभिन्न भाषाएं और संस्कृतियां समाहित होती रही हैं। लेकिन अब इस फैसले से अमेरिका की पहचान को एक नई दिशा मिल सकती है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस फैसले की आलोचना हो रही है। यूरोपीय देशों (European countries) और अन्य वैश्विक संगठनों ने इस फैसले को प्रवासियों के खिलाफ बताया है और इसे मानवाधिकारों (human rights) का उल्लंघन करार दिया है। इससे अमेरिका और अन्य देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों (diplomatic relations) पर भी असर पड़ सकता है।

कुल मिलाकर, यह कहना गलत नहीं होगा कि यह फैसला अमेरिका में भाषा और संस्कृति से जुड़ी एक नई बहस को जन्म दे चुका है। कुछ लोग इसे अमेरिका की एकता के लिए जरूरी मान रहे हैं, तो कुछ इसे भेदभावपूर्ण और अन्यायपूर्ण कह रहे हैं। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस फैसले का वास्तविक प्रभाव क्या पड़ता है और क्या अमेरिकी जनता इसे स्वीकार करती है या नहीं।

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