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Trillions Worth of Gold in the Himalayas! |
हिमालय पर्वत, जिसे दुनिया की छत भी कहा जाता है, केवल अपनी भव्यता और जैव विविधता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, बल्कि इसके गर्भ में छिपे खनिज संसाधन भी भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक वरदान साबित हो सकते हैं। हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों और भूवैज्ञानिकों ने हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में सोना, चांदी, लोहा, तांबा, जस्ता, बॉक्साइट और दुर्लभ खनिजों (rare earth minerals) की मौजूदगी का पता लगाया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब चीन हिमालय के अपने हिस्से में बड़े पैमाने पर खनन कर रहा है, तो भारत अभी तक इस क्षेत्र की अपार खनिज संपदा का दोहन क्यों नहीं कर पाया? इसके पीछे पर्यावरणीय, भू-राजनीतिक और तकनीकी चुनौतियाँ जिम्मेदार हैं, जिनका समाधान तलाशने की जरूरत है।
भारतीय उपमहाद्वीप और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट्स के बीच हुए टकराव से लगभग 50 से 60 मिलियन साल पहले हिमालय पर्वतों का निर्माण हुआ। इस टकराव के कारण न केवल पर्वत श्रृंखलाएँ बनीं, बल्कि भूगर्भ में कई दुर्लभ और कीमती खनिजों का संचय भी हुआ। खासकर हिमालय के पूर्वी हिस्से में, जो पहले टेथिस सागर (Tethys Sea) के नीचे था, वहाँ कई खनिज पाए जाते हैं। भूगर्भीय अध्ययनों के अनुसार, इस क्षेत्र में मौजूद चट्टानों में कोयला, चूना पत्थर (limestone), ग्रेफाइट, डोलोमाइट, सोपस्टोन और दुर्लभ पृथ्वी खनिजों (rare earth elements) की भारी मात्रा में मौजूदगी है।
हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के नामचिक-नामफुक कोयला क्षेत्र में 15.6 मिलियन टन कोयला भंडार की पुष्टि हुई है, जो भारत की वार्षिक कोयला माँग का 5-6% तक पूरा कर सकता है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में 2-3 मिलियन टन मैंगनीज अयस्क (manganese ore) का पता चला है, जो इस्पात उद्योग के लिए बेहद आवश्यक है। लद्दाख की जास्कर पर्वत श्रृंखला में 1.8 लाख टन बोरेक्स (borax) और सल्फर भंडार मौजूद हैं, जो कृषि और रसायन उद्योग के लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं।
परंतु हिमालयी खनिज संसाधनों का दोहन सिर्फ आर्थिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह भारत की रणनीतिक स्थिति को भी मजबूत कर सकता है। उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर के पीर पंजाल क्षेत्र में मोन्ज़ाइट (monazite) सैंड्स में सेरियम (cerium) और लैंथेनम (lanthanum) जैसे दुर्लभ पृथ्वी तत्व पाए जाते हैं, जिनका उपयोग इलेक्ट्रिक वाहन (EV) बैटरियों और रक्षा उपकरणों में किया जाता है। दुर्लभ पृथ्वी खनिजों के मामले में भारत अभी तक चीन पर निर्भर है और 2023 में भारत ने 95% ऐसे खनिज चीन से आयात किए थे। यदि हिमालय में इन खनिजों का सफलतापूर्वक खनन किया जाए, तो भारत इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकता है और निर्यात से भी भारी लाभ कमा सकता है।
खनन से जुड़े संभावित लाभों को देखते हुए यह प्रश्न उठता है कि भारत अभी तक इस दिशा में प्रभावी कदम क्यों नहीं उठा सका? इसका उत्तर हमें पर्यावरणीय और भौगोलिक बाधाओं में मिलता है। हिमालय पर्वत न केवल एक जटिल भूगर्भीय संरचना है, बल्कि यह दुनिया के 36 जैव विविधता हॉटस्पॉट्स में से एक है। यहाँ 3,239 ग्लेशियर और 9,409 स्थायी बर्फीले क्षेत्र (snowfields) हैं, जो गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों को जल प्रदान करते हैं। यह क्षेत्र लगभग 1.9 अरब लोगों के जीवन का आधार है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप के कारण हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र गंभीर संकट में है।
वर्ष 2021 की IPCC रिपोर्ट के अनुसार, हिमालयी ग्लेशियर अब तक 33% तक पिघल चुके हैं, और गंगोत्री ग्लेशियर प्रतिवर्ष 20 मीटर पीछे हट रहा है। यदि यहाँ अनियंत्रित खनन शुरू किया गया, तो यह प्रक्रिया और तेज हो सकती है। खनन में इस्तेमाल होने वाले विस्फोटकों के कारण भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ सकती हैं, जैसा कि हाल ही में जोशीमठ में देखने को मिला। वर्ष 2000 से लेकर अब तक हिमालयी राज्यों में भूस्खलन की घटनाएँ 40% तक बढ़ चुकी हैं और विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यहाँ बड़े पैमाने पर खनन हुआ, तो यह दर 80% तक पहुँच सकती है।
दूसरी बड़ी समस्या जल संकट की है। खनन गतिविधियों में भारी मात्रा में पानी की जरूरत होती है और हिमालय में जल संसाधनों का अनियंत्रित उपयोग पूरे उत्तर भारत के कृषि और पेयजल आपूर्ति को खतरे में डाल सकता है। वर्तमान में भारत में जल पुनर्चक्रण (water recycling) की आधारभूत संरचना बेहद सीमित है, जिससे 90% से अधिक खनन जल व्यर्थ चला जाता है। यदि भारत को हिमालयी खनिजों का दोहन करना है, तो उसे जल पुनर्चक्रण तकनीकों को विकसित करना होगा।
भारत के पास खनन को लेकर बुनियादी ढांचे की भी भारी कमी है। 2019 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट ग्रेफाइट क्षेत्र में 2 मिलियन टन ग्रेफाइट की मौजूदगी का अनुमान है, लेकिन वहाँ सड़क और परिवहन की सुविधाएँ इतनी कमजोर हैं कि खनन करना अत्यंत कठिन है। इसके अलावा, भारत के पास पर्याप्त कुशल खनन श्रमिकों की भी कमी है। वर्तमान में भारत की खनन श्रम शक्ति का 70% हिस्सा अनस्किल्ड है, जिससे आधुनिक खनन तकनीकों को अपनाना मुश्किल हो जाता है।
यदि भारत को हिमालयी खनिज संसाधनों का दोहन करना है, तो उसे अन्य देशों से सीखना होगा। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया के पिलबारा क्षेत्र में 2023 में 300 मिलियन टन लौह अयस्क (iron ore) का खनन किया गया, जिससे 80 बिलियन डॉलर की आय हुई। वहाँ हर खनन क्षेत्र को पुनर्वासित किया जाता है और पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिए सख्त नियम लागू किए गए हैं। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत में जल पुनर्चक्रण तकनीकों का व्यापक उपयोग होता है, जिससे 80% तक पानी बचाया जाता है।
इसी तरह, नॉर्वे ने उत्तरी सागर (North Sea) में तेल और गैस खनन के लिए उन्नत सुरंग तकनीकों (advanced tunneling technologies) का उपयोग किया, जिससे सतही क्षति को 60% तक कम किया गया। यह तकनीक हिमालय में भी उपयोगी हो सकती है, क्योंकि यहाँ सतही खनन (surface mining) से भूस्खलन का खतरा बहुत अधिक है। अमेरिका में सैटेलाइट मॉनिटरिंग और पर्यावरणीय नियमों को सख्ती से लागू किया जाता है, जिससे खनन के नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है।
भारत को चाहिए कि वह इन देशों से प्रेरणा लेते हुए एक समग्र खनन नीति बनाए, जो आर्थिक विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाए रखे। इसके लिए सरकार को खनन क्षेत्रों की सटीक भूवैज्ञानिक मैपिंग करनी होगी, जल पुनर्चक्रण बुनियादी ढाँचे में निवेश करना होगा, कुशल श्रमिकों को प्रशिक्षित करना होगा और आधुनिक तकनीकों को अपनाना होगा।
यदि सही रणनीति अपनाई जाए, तो हिमालय के खनिज संसाधन भारत के लिए एक वरदान साबित हो सकते हैं, जिससे देश की ऊर्जा सुरक्षा, औद्योगिक विकास और आर्थिक प्रगति को एक नई दिशा मिल सकती है। लेकिन यदि इन संसाधनों का दोहन अनियंत्रित तरीके से किया गया, तो यह एक पर्यावरणीय आपदा का रूप भी ले सकता है। इसलिए भारत को एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए दीर्घकालिक योजनाएँ बनानी होंगी, ताकि हिमालयी खनिज संपदा का सतत और जिम्मेदार उपयोग किया जा सके।