Hindi vs Tamil: तमिलनाडु में फिर छिड़ी भाषा की जंग!

NCI

Hindi vs Tamil

 तमिलनाडु में भाषा को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है, जहां एक बार फिर हिंदी बनाम तमिल का मुद्दा तूल पकड़ता नजर आ रहा है। यह बहस नई नहीं है, बल्कि दशकों से चली आ रही है। हाल ही में यह मामला तब और गरमा गया जब केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy) के तहत तमिलनाडु को मिलने वाले फंड को रोक दिया। वजह थी कि तमिलनाडु सरकार ‘तीन भाषा नीति’ (Three Language Formula) को अपनाने से इनकार कर रही थी। इस नीति के अनुसार, छात्रों को अंग्रेजी, हिंदी और एक क्षेत्रीय भाषा सिखाई जानी चाहिए, लेकिन तमिलनाडु सरकार का मानना है कि वे केवल तमिल और अंग्रेजी को ही अपने शैक्षणिक ढांचे में शामिल रखेंगे।

तमिलनाडु में हिंदी के विरोध की जड़ें काफी गहरी हैं। यह विवाद 1937 से चला आ रहा है, जब मद्रास प्रेसीडेंसी में हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की गई थी। इस फैसले का जबरदस्त विरोध हुआ और अंततः इसे वापस लेना पड़ा। इसके बाद 1965 में जवाहरलाल नेहरू सरकार ने हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने की कोशिश की, लेकिन तब भी तमिलनाडु में जबरदस्त विरोध देखने को मिला। यहां तक कि उस समय बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें कई युवाओं ने अपनी जान तक गंवा दी। इस आंदोलन के बाद केंद्र सरकार को हिंदी को जबरदस्ती थोपने का फैसला वापस लेना पड़ा और तमिलनाडु में दो भाषा नीति को लागू रहने दिया गया, जहां केवल तमिल और अंग्रेजी को पढ़ाया जाता है।

तमिलनाडु के लोगों का हिंदी के प्रति यह रुख यूं ही नहीं बना। वे इसे अपने सांस्कृतिक अस्तित्व से जोड़ते हैं। तमिल भाषा दुनिया की सबसे पुरानी और समृद्ध भाषाओं में से एक है और इसे बोलने वाले इसे अपनी पहचान का प्रतीक मानते हैं। तमिलनाडु में इस बात को लेकर हमेशा से डर रहा है कि हिंदी को लागू करने से उनकी भाषा और संस्कृति खतरे में पड़ सकती है। इसके अलावा, दक्षिण भारत की राजनीति में द्रविड़ दलों का प्रभाव काफी मजबूत रहा है, जो हमेशा से हिंदी के आधिपत्य का विरोध करते आए हैं। डीएमके (DMK) जैसी पार्टियां इस मुद्दे को तमिल पहचान से जोड़कर इसे राजनीतिक रूप से भुनाती रही हैं।

आज के संदर्भ में यह विवाद इसलिए और बढ़ गया है क्योंकि केंद्र सरकार तमिलनाडु को तीन भाषा नीति अपनाने के लिए बाध्य कर रही है। केंद्र का कहना है कि यह नीति छात्रों को विविध भाषाओं से परिचित कराएगी और उन्हें राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर अवसर दिलाने में मदद करेगी। लेकिन तमिलनाडु सरकार का मानना है कि यह दरअसल हिंदी को थोपने की एक साजिश है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन (M.K. Stalin) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि चाहे केंद्र सरकार कितनी भी धनराशि क्यों न दे, वे हिंदी को नहीं अपनाएंगे। डीएमके सरकार इसे तमिल पहचान और स्वायत्तता का मुद्दा मान रही है।

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह मुद्दा तमिलनाडु की राजनीति के लिए बेहद संवेदनशील है। अगले साल राज्य में चुनाव होने हैं, और ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर झुकना नहीं चाहता। सत्तारूढ़ डीएमके और विपक्षी पार्टियां दोनों ही हिंदी विरोधी रुख अपनाकर तमिल वोटरों को लुभाने में लगी हुई हैं। दिलचस्प बात यह है कि दक्षिण भारत की अन्य पार्टियां भी इस मुद्दे पर तमिलनाडु के साथ खड़ी नजर आ रही हैं।

हालांकि, इस विवाद का एक दूसरा पहलू भी है। हिंदी को स्वीकार करने से तमिलनाडु को कई फायदे हो सकते हैं। आज पूरे भारत में हिंदी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। उत्तर भारत के व्यापारी, उद्योगपति और अन्य व्यवसायी हिंदी बोलते हैं, और अगर तमिलनाडु के लोग हिंदी सीखेंगे तो इससे उन्हें व्यापार और रोजगार के नए अवसर मिल सकते हैं। बेंगलुरु इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां हिंदी, कन्नड़ और अंग्रेजी का मिश्रण देखने को मिलता है। इस वजह से वहां व्यापार और आईटी सेक्टर में तेजी से विकास हुआ है।

लेकिन तमिलनाडु के लोग इसे अपनी संस्कृति से समझौता मानते हैं। वे मानते हैं कि अगर उन्होंने हिंदी को स्वीकार कर लिया तो धीरे-धीरे उनकी मातृभाषा तमिल कमजोर पड़ जाएगी। उनका यह भी कहना है कि अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है और इसे सीखकर वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन हिंदी सिर्फ उत्तर भारतीय राज्यों में ही उपयोगी है। इसलिए वे अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हैं और हिंदी को गैर-जरूरी मानते हैं।

इस विवाद का हल क्या हो सकता है? विशेषज्ञ मानते हैं कि भाषा को थोपने की बजाय संवाद और आपसी समझ बढ़ाने की जरूरत है। अगर तमिलनाडु में हिंदी पढ़ाई जाए, तो बदले में उत्तर भारत के राज्यों में भी तमिल, कन्नड़ या मलयालम जैसी भाषाओं को सिखाया जाना चाहिए। इससे भारत की भाषाई विविधता को एक नया आयाम मिलेगा और उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच की सांस्कृतिक खाई को भी पाटा जा सकेगा।

इसके अलावा, केंद्र सरकार को यह समझना होगा कि भाषा एक संवेदनशील मुद्दा है और इसे जबरदस्ती लागू करना राजनीतिक टकराव को जन्म दे सकता है। अगर तमिलनाडु हिंदी के बजाय कोई और भारतीय भाषा अपनाना चाहता है तो उसे उसकी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। साथ ही, तमिलनाडु को भी यह समझना होगा कि हिंदी केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं है, बल्कि यह भारत की संपर्क भाषा (link language) भी बन चुकी है।

फिलहाल, यह विवाद अभी खत्म होता नहीं दिख रहा है। बीजेपी और डीएमके दोनों ही अपने-अपने रुख पर अड़े हुए हैं और कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। तमिलनाडु के लोग इसे अपनी पहचान से जोड़कर देख रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार इसे एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत एकीकृत भारत की दिशा में एक कदम बता रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में यह विवाद किस दिशा में जाता है। क्या केंद्र सरकार तमिलनाडु को मनाने में कामयाब होगी, या फिर यह विवाद और गहराता जाएगा? समय ही बताएगा।

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