Zelensky’s Shocking Move! इस्तीफा या नाटो?

NCI

Zelensky’s Shocking Move!

 रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध अब तक तीन साल पूरे कर चुका है, लेकिन इसका कोई ठोस अंत नजर नहीं आ रहा है। इस पूरे संघर्ष में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की ने एक बड़ा बयान दिया कि अगर उन्हें नाटो (NATO) की सदस्यता मिलती है तो वे अपने पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं। यह बयान इस युद्ध में एक निर्णायक मोड़ ला सकता है, क्योंकि नाटो की सदस्यता यूक्रेन को एक मजबूत सैन्य गठबंधन का हिस्सा बना सकती है और रूस के आक्रमण को और जटिल बना सकती है। हालांकि, इस निर्णय के पीछे केवल यूक्रेन की सुरक्षा का मुद्दा ही नहीं, बल्कि वैश्विक राजनीति के बड़े खेल भी जुड़े हुए हैं। अमेरिका ने यूक्रेन को 60 बिलियन डॉलर की सहायता दी है, लेकिन इसके पीछे उसका अपना रणनीतिक और आर्थिक स्वार्थ भी छिपा हुआ है। अमेरिका हमेशा से ऐसे संघर्षों में हस्तक्षेप करता आया है जहां वह अपने फायदे देख सकता है, और यूक्रेन भी इस वैश्विक रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।

यूक्रेन-रूस युद्ध का मूल कारण नाटो की विस्तार नीति को माना जा सकता है। रूस हमेशा से यह मानता रहा है कि अगर यूक्रेन नाटो का हिस्सा बनता है, तो यह उसकी सुरक्षा के लिए सीधा खतरा होगा। इसी आशंका के चलते रूस ने 2022 में यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया था। हालांकि, यूक्रेन ने भी पूरी ताकत के साथ जवाब दिया और पश्चिमी देशों से भारी सैन्य और आर्थिक सहायता प्राप्त की। लेकिन तीन साल बीतने के बावजूद युद्ध की स्थिति जस की तस बनी हुई है। रूस लगातार यूक्रेन पर हमले कर रहा है, हाल ही में उसने 267 ड्रोन हमलों के जरिए यूक्रेन पर बड़ा हमला किया। इस हमले का उद्देश्य यूक्रेन को यह अहसास दिलाना था कि वह अब भी कमजोर स्थिति में है और नाटो की सदस्यता के बावजूद भी उसे इस युद्ध से बाहर निकलने का कोई स्पष्ट रास्ता नहीं मिल पाएगा।

अमेरिका और पश्चिमी देश यूक्रेन को नाटो में शामिल करने को लेकर असमंजस में हैं। तुर्की जैसे कुछ नाटो सदस्य देशों ने यूक्रेन की सदस्यता का विरोध किया है, क्योंकि उन्हें डर है कि इससे रूस के साथ उनका सीधा टकराव हो सकता है। इसीलिए जेलेंस्की का यह बयान कि वे इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं, कहीं न कहीं नाटो पर दबाव बनाने की एक कोशिश भी मानी जा सकती है। यदि यूक्रेन नाटो का हिस्सा बनता है, तो अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों को उसकी सुरक्षा की गारंटी देनी होगी, जिसका मतलब होगा कि रूस के साथ उनका सीधा युद्ध छिड़ सकता है। अमेरिका पहले ही इस युद्ध में काफी संसाधन लगा चुका है, और अब वह इसमें और गहराई से उलझना नहीं चाहता।

इस युद्ध के पीछे केवल सैन्य और राजनीतिक कारण ही नहीं, बल्कि आर्थिक कारण भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यूक्रेन दुर्लभ खनिजों (rare earth minerals) का एक बड़ा भंडार रखता है, और अमेरिका की नजरें लंबे समय से इन संसाधनों पर टिकी हुई हैं। अमेरिका हमेशा से उन देशों के साथ गठजोड़ करने की कोशिश करता है जहां उसे आर्थिक और सैन्य लाभ मिल सकता है। गल्फ देशों का उदाहरण लिया जाए, तो जब वहां तेल का भंडार था लेकिन उसका सही उपयोग नहीं हो रहा था, तब यूरोपीय देशों ने वहां प्रवेश किया और इन संसाधनों का फायदा उठाया। आज वही स्थिति यूक्रेन के साथ हो रही है, जहां अमेरिका की नजरें उसके दुर्लभ खनिज संसाधनों पर हैं। इसीलिए वह यूक्रेन को किसी न किसी रूप में अपने पाले में बनाए रखना चाहता है।

डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में जेलेंस्की को "तानाशाह" (dictator) कहा है, जिससे यह साफ जाहिर होता है कि अमेरिका की राजनीति भी अब इस युद्ध को लेकर बंटी हुई है। ट्रंप का यह बयान दिखाता है कि अमेरिका के अंदर भी कुछ लोग मानते हैं कि जेलेंस्की की सत्ता एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ज्यादा, एक जबरन थोपी गई स्थिति है। ट्रंप का कहना है कि जेलेंस्की को बिना चुनाव लड़े ही सत्ता मिल गई और अब वह अपने पद को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। इस पर जेलेंस्की ने जवाब देते हुए कहा कि "सिर्फ एक असली तानाशाह को इस शब्द से तकलीफ होती है।" इससे यह जाहिर होता है कि जेलेंस्की भी इस राजनीतिक लड़ाई में पीछे हटने के मूड में नहीं हैं और वह खुद को एक सशक्त नेता के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं।

अब सवाल यह उठता है कि आगे क्या होगा? क्या वास्तव में यूक्रेन को नाटो की सदस्यता मिलेगी? अगर ऐसा होता है तो रूस की प्रतिक्रिया क्या होगी? क्या यह युद्ध और भी लंबा खिंच सकता है या फिर कोई नया समझौता होगा? कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका और रूस के बीच एक गुप्त समझौता (negotiation deal) हो सकता है, जहां यूक्रेन को कुछ रियायतें दी जाएंगी और बदले में अमेरिका रूस पर लगे कुछ प्रतिबंधों को हटाने पर विचार कर सकता है। हालांकि, यह भी संभव है कि अमेरिका यूक्रेन को अपने सैन्य ठिकानों के लिए इस्तेमाल करे, जिससे रूस पर दबाव बनाया जा सके। अमेरिका की रणनीति हमेशा से यही रही है कि वह उन देशों में अपने सैन्य अड्डे (military bases) स्थापित करे जहां उसे संभावित खतरा महसूस होता है। अगर यूक्रेन को नाटो की सदस्यता मिलती है, तो अमेरिका वहां अपने नेवी (navy), एयरफोर्स (air force) और अन्य सैन्य ठिकाने स्थापित कर सकता है, जिससे रूस को घेरने की उसकी योजना को बल मिलेगा।

ट्रंप प्रशासन चाहता है कि अमेरिका की मदद के बदले यूक्रेन कुछ रियायतें दे। यह कंपनसेशन (compensation) देने के लिए तैयार है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह समझौता रूस को मंजूर होगा? रूस पहले ही यह साफ कर चुका है कि वह यूक्रेन को नाटो में जाने नहीं देगा और अगर ऐसा हुआ तो वह इस युद्ध को और तेज कर देगा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले महीनों में क्या नया मोड़ आता है।

यह युद्ध अब सिर्फ रूस और यूक्रेन के बीच नहीं रह गया है, बल्कि यह एक वैश्विक शक्ति संघर्ष बन चुका है जिसमें अमेरिका, यूरोप, चीन और कई अन्य देश अपने-अपने हित देख रहे हैं। अमेरिका अपने आर्थिक और सैन्य वर्चस्व को बनाए रखना चाहता है, जबकि रूस अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है और यूक्रेन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन इस पूरे संघर्ष में सबसे ज्यादा नुकसान आम नागरिकों का हो रहा है, जिनका जीवन तीन साल से अस्त-व्यस्त हो चुका है। लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं, हजारों लोग मारे जा चुके हैं और इस युद्ध का कोई स्पष्ट अंत नजर नहीं आ रहा है।

युद्ध के इस पूरे घटनाक्रम से एक और महत्वपूर्ण चीज निकलकर सामने आती है—युवाओं की मानसिकता पर इसका असर। जब किसी देश में लंबे समय तक युद्ध चलता है, तो वहां की नई पीढ़ी पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। आज की युवा पीढ़ी पहले ही सोशल मीडिया और डिजिटल डिस्ट्रैक्शन्स (distractions) में उलझी हुई है, और अब युद्ध की यह स्थिति उन्हें और भी अस्थिर बना रही है। ऐसे में युवाओं को अपनी मानसिक शक्ति को मजबूत करने और आत्म-सुधार की दिशा में कदम बढ़ाने की जरूरत है।

अंत में, इस युद्ध का भविष्य अभी भी अनिश्चित है। अगर नाटो यूक्रेन को अपनी सदस्यता देता है, तो रूस की प्रतिक्रिया कितनी आक्रामक होगी यह देखना महत्वपूर्ण होगा। अगर जेलेंस्की इस्तीफा देते हैं, तो यह युद्ध के लिए एक नया मोड़ ला सकता है। लेकिन यह भी संभव है कि अमेरिका और रूस के बीच कोई गुप्त समझौता हो जाए और यह युद्ध धीरे-धीरे खत्म होने की दिशा में बढ़े। दुनिया के सभी बड़े देश अपने-अपने हितों की रक्षा में लगे हुए हैं, लेकिन सवाल यह है कि आम जनता के लिए कौन खड़ा होगा? इस युद्ध का असली अंत कब होगा, यह अभी भी भविष्य के गर्भ में है।

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