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USAID |
यूएसएआईडी (USAID) को आम तौर पर एक सहायता और विकास संगठन के रूप में देखा जाता है, लेकिन गहराई से देखने पर इसके कार्य और उद्देश्यों पर कई सवाल उठते हैं। यह संगठन विकास सहायता देने के नाम पर दुनिया के कई देशों की राजनीति, अर्थव्यवस्था और मीडिया को प्रभावित करता है। यह किसी देश की सत्ता को अस्थिर करने, सरकारों को हटाने और अपने प्रभाव को स्थापित करने के लिए आर्थिक और राजनीतिक साधनों का इस्तेमाल करता है। इस प्रक्रिया में इसका प्रमुख हथियार गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और मीडिया संस्थानों को फंडिंग देना है। अमेरिका की विदेश नीति में इसे एक सॉफ्ट पावर टूल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
यूएसएआईडी द्वारा किसी देश में प्रभाव बनाने का पहला कदम वहां की स्थानीय एनजीओ और सिविल सोसाइटी ग्रुप्स को फंडिंग देना होता है। यह फंडिंग मानवाधिकारों, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और लोकतंत्र को मजबूत करने जैसी सकारात्मक बातों के नाम पर दी जाती है, लेकिन इनका असली उद्देश्य उस देश की सरकार के खिलाफ जनभावना को मोड़ना होता है। इसके तहत मीडिया में सरकार विरोधी नैरेटिव बनाए जाते हैं, विरोध प्रदर्शन आयोजित कराए जाते हैं और सरकार की छवि को खराब करने के प्रयास किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में ग्रीनपीस जैसी एनजीओ को पर्यावरण के नाम पर कई परियोजनाओं के विरोध के लिए फंडिंग दी गई, जिससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा को नुकसान पहुंचा। इसी तरह, 2014 में भारतीय इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट में ग्रीनपीस इंडिया पर आरोप लगे कि वह भारत की आर्थिक वृद्धि को धीमा करने का काम कर रही थी।
दूसरा चरण मीडिया को नियंत्रित करना होता है। यूएसएआईडी, सेंटर फॉर इंटरनेशनल मीडिया असिस्टेंस (CIMA), रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) और फोर्ड फाउंडेशन जैसी संस्थाओं के जरिए पत्रकारों और मीडिया संगठनों को फंडिंग देता है। जो मीडिया संस्थान अमेरिका समर्थक सरकारों की आलोचना करते हैं, उन्हें कम समर्थन मिलता है, जबकि विरोधी गुटों को आर्थिक और रणनीतिक रूप से मजबूत किया जाता है। उदाहरण के लिए, 2003 में इराक पर आक्रमण से पहले अमेरिकी सरकार ने वहां के स्थानीय मीडिया में अपने मनचाहे नैरेटिव को स्थापित किया।
इसके बाद आर्थिक दबाव का इस्तेमाल किया जाता है। यूएसएआईडी जिस देश को आर्थिक मदद देता है, वहां अगर अमेरिकी हितों के खिलाफ कोई कदम उठाया जाता है, तो वित्तीय सहायता रोक दी जाती है। उदाहरण के लिए, 2001 से 2018 के बीच पाकिस्तान को 33 बिलियन डॉलर से अधिक की सहायता दी गई, लेकिन जब उसने चीन के साथ CPEC समझौता किया, तो अमेरिका ने 1.3 बिलियन डॉलर की सहायता रोक दी।
चौथा चरण सरकार बदलने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप करना होता है। यूएसएआईडी के जरिए अपोजिशन पार्टियों को फंडिंग दी जाती है, उन्हें ट्रेनिंग दी जाती है और सरकार के खिलाफ विद्रोह को संगठित किया जाता है। अगर यह रणनीति असफल रहती है, तो अमेरिका सैन्य हस्तक्षेप या तख्तापलट का सहारा लेता है। इराक, लीबिया, मिस्र, यूक्रेन और बोलिविया में इस रणनीति का प्रयोग हो चुका है।
यूक्रेन इसका सबसे ताजा उदाहरण है। 2013-14 में जब राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने यूरोपीय संघ के बजाय रूस के साथ गठजोड़ करने का फैसला किया, तो अमेरिका ने वहां सरकार विरोधी प्रदर्शनों को समर्थन देना शुरू कर दिया। एनईडी (NED), आईआरआई (IRI) और एनडीआई (NDI) जैसी संस्थाओं ने स्थानीय संगठनों और मीडिया को फंडिंग दी, जिससे "यूरोमैदान" आंदोलन भड़क उठा और अंततः सरकार गिर गई। इसके तुरंत बाद, अमेरिका ने नए प्रशासन को आर्थिक सहायता दी, जिससे यह साफ हो गया कि यह एक सुनियोजित योजना थी।
इसी प्रकार, बांग्लादेश में भी 2023-24 में शेख हसीना सरकार के खिलाफ अमेरिका ने एक साइलेंट कू (Silent Coup) को अंजाम देने की कोशिश की। अमेरिका के डोनाल्ड लू ने बांग्लादेशी अधिकारियों को चेतावनी दी थी कि अगर वे "फ्री एंड फेयर इलेक्शंस" नहीं कराते, तो उन पर प्रतिबंध लगाए जाएंगे। इसके बाद, यूएसएआईडी ने मीडिया संस्थानों और अपोजिशन ग्रुप्स को फंडिंग देना शुरू किया। बांग्लादेश की पैरामिलिट्री फोर्स "रैपिड एक्शन बटालियन" पर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाकर अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगा दिए। धीरे-धीरे, विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए, जिनका नेतृत्व अमेरिकी वित्त पोषित संगठनों ने किया।
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि यूएसएआईडी सिर्फ एक सहायता संगठन नहीं बल्कि अमेरिका के भू-राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने का एक उपकरण है। यह संगठन उन देशों में लोकतंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा का दावा करता है, लेकिन असल में इसका असली उद्देश्य अमेरिकी नीतियों के अनुकूल सरकारों को सत्ता में लाना और विरोधी सरकारों को हटाना है। इराक, लीबिया, यूक्रेन, बांग्लादेश और अन्य देशों के मामलों से यह साफ हो जाता है कि यूएसएआईडी लोकतंत्र की रक्षा के बजाय राजनीतिक हस्तक्षेप और आर्थिक नियंत्रण का एक माध्यम बन चुका है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या यह रणनीति एक नई तरह की साम्राज्यवाद (Neo-Colonialism) है? क्या यह आधुनिक युग की कूटनीति का हिस्सा है या केवल एक शक्ति प्रदर्शन? भारत जैसे देश को इससे सतर्क रहने की जरूरत है ताकि वह बाहरी हस्तक्षेप से बच सके और अपनी संप्रभुता को सुरक्षित रख सके।