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The Dark Reality of India’s Metro Network! |
भारत में मेट्रो रेल नेटवर्क का विस्तार तेजी से हो रहा है और यह देश के शहरी परिवहन में एक अहम भूमिका निभा रहा है। 2014 में मेट्रो की कुल लंबाई 248 किलोमीटर थी, जो अब बढ़कर 1000 किलोमीटर से अधिक हो गई है। देश के 21 शहरों में मेट्रो ट्रेनें चल रही हैं, लेकिन इसके बावजूद कुछ सवाल उठते हैं—क्या मेट्रो एक लाभदायक प्रोजेक्ट है? क्या लोग वास्तव में मेट्रो का उपयोग कर रहे हैं? और क्या यह निजी वाहनों का बेहतर विकल्प बन पा रही है?
भारत में मेट्रो नेटवर्क का सबसे बड़ा विस्तार दिल्ली में हुआ है, जहां मेट्रो रोज़ाना करीब 1 करोड़ यात्रियों को सेवा देती है। लेकिन अन्य शहरों की स्थिति इतनी अच्छी नहीं है। लखनऊ, जयपुर, नागपुर और अहमदाबाद जैसे शहरों में मेट्रो लगभग खाली चल रही है। शुरुआत में इन शहरों में मेट्रो को लेकर बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन जब वास्तविक आंकड़े सामने आए तो पता चला कि अनुमानित यात्रियों की तुलना में वास्तविक यात्रियों की संख्या बहुत कम है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या इन शहरों को वास्तव में मेट्रो की जरूरत थी?
बेंगलुरु की बात करें तो यहां मेट्रो की बहुत ज्यादा जरूरत है, क्योंकि यह शहर भीषण ट्रैफिक की समस्या से जूझ रहा है। बेंगलुरु में 23 लाख से ज्यादा प्राइवेट कारें हैं और दिल्ली में यह संख्या 20 लाख के करीब है। आईआईटी बॉम्बे की एक स्टडी बताती है कि आने वाले वर्षों में भारत में टू-व्हीलर वाहनों की संख्या तीन गुना तक बढ़ सकती है। 2050 तक देश में लगभग 56 करोड़ टू-व्हीलर और 43 करोड़ कारें हो सकती हैं। ऐसे में सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना जरूरी है, नहीं तो सड़कों पर ट्रैफिक जाम की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी।
लेकिन मेट्रो की सफलता सिर्फ इसके निर्माण पर निर्भर नहीं करती, बल्कि इस बात पर भी कि लोग इसे अपनाते हैं या नहीं। फिलहाल देखा जाए तो कई शहरों में लोग मेट्रो के बजाय अपनी निजी गाड़ियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि मेट्रो स्टेशन हर किसी के घर के पास नहीं होते, जबकि कार और बाइक सीधा घर से दफ्तर तक ले जाती हैं। दिल्ली मेट्रो को अपवाद माना जा सकता है, जहां मेट्रो का नेटवर्क इतना विस्तृत है कि यह शहर के लगभग हर कोने को जोड़ता है। लेकिन बाकी शहरों में यह सुविधा अभी भी अधूरी है।
भारत में मेट्रो नेटवर्क में कुछ नई और अनोखी पहल भी हुई हैं। जैसे कि कोलकाता में पहली अंडरवाटर मेट्रो, जो हुगली नदी के नीचे से गुजरती है। इसी तरह, दिल्ली मेट्रो की 'जनता लाइन' ड्राइवरलेस तकनीक से चलती है। केरल में कोच्चि वाटर मेट्रो भी एक अनोखी परियोजना है, जो शहर के 10 द्वीपों को जोड़ती है। लेकिन क्या ये सभी परियोजनाएं व्यावहारिक हैं?
आईआईएम अहमदाबाद की एक स्टडी बताती है कि भारत में मेट्रो नेटवर्क वित्तीय रूप से घाटे में चल रहे हैं। विशेष रूप से छोटे शहरों में, जहां मेट्रो को उतना अधिक समर्थन नहीं मिल रहा है जितना कि उम्मीद की गई थी। जयपुर मेट्रो को 10 साल में 14,330 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इसी तरह, पुणे मेट्रो प्रोजेक्ट का कुल खर्च 11,400 करोड़ रुपये है, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा लोन से आया है।
सरकार लगातार मेट्रो को लोकप्रिय बनाने के प्रयास कर रही है। 'हैप्पी आवर्स' स्कीम के तहत टिकट दरें कम की गई हैं। कुछ विशेष अवसरों पर मुफ्त यात्रा की सुविधा भी दी जाती है ताकि लोग मेट्रो का उपयोग करने के लिए प्रेरित हों। लेकिन समस्या यह है कि भारत में सार्वजनिक परिवहन को लेकर लोगों की मानसिकता अभी भी निजी गाड़ियों के पक्ष में झुकी हुई है। लोग सुविधा और आराम को प्राथमिकता देते हैं, और जब तक मेट्रो उनके घर या दफ्तर के पास नहीं पहुंचेगी, वे इसे अपनाने में संकोच करेंगे।
दिल्ली मेट्रो के नए एमडी विकास कुमार का कहना है कि भले ही मेट्रो खुद में लाभदायक न हो, लेकिन इसके आसपास का आर्थिक परिदृश्य बदल जाता है। मेट्रो स्टेशन के पास जमीनों की कीमतें बढ़ जाती हैं, नए व्यवसाय खुलते हैं, और क्षेत्र का समग्र विकास होता है। नोएडा, गुरुग्राम, फरीदाबाद और गाजियाबाद जैसे इलाके मेट्रो कनेक्टिविटी की वजह से तेजी से विकसित हुए हैं।
भारत को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। सबसे पहला कदम होगा मेट्रो को अधिक किफायती और सुगम बनाना। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (CSE) की एक स्टडी के अनुसार, दिल्ली के यात्री अपनी आय का लगभग 14% मेट्रो यात्रा पर खर्च करते हैं, जो न्यूयॉर्क और पेरिस जैसे शहरों से कहीं अधिक है। अगर मेट्रो को सस्ता बनाया जाए तो अधिक लोग इसे अपनाने के लिए प्रेरित होंगे।
दूसरा महत्वपूर्ण कदम होगा ट्रांसपोर्ट सिस्टम का बेहतर एकीकरण। न्यूयॉर्क, लंदन और पेरिस में मेट्रो को बस, ट्राम और अन्य परिवहन सेवाओं से जोड़ा गया है, जिससे लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाने में आसानी होती है। भारत में भी इस मॉडल को अपनाने की जरूरत है।
तीसरा कदम होगा 'लास्ट माइल कनेक्टिविटी' को बेहतर बनाना। अगर मेट्रो स्टेशन से लोगों के घर तक ऑटो, बस या साइकिल रेंटिंग जैसी सुविधाएं दी जाएं, तो वे मेट्रो का उपयोग करने के लिए अधिक प्रेरित होंगे।
भले ही भारत की मेट्रो परियोजनाएं अभी नुकसान में चल रही हैं, लेकिन अगर दीर्घकालिक दृष्टि से देखा जाए तो यह एक महत्वपूर्ण निवेश है। जब लोग बढ़ती ट्रैफिक और प्रदूषण से परेशान होकर सार्वजनिक परिवहन की ओर मुड़ेंगे, तब मेट्रो का असली लाभ नजर आएगा। सरकार और शहरी योजनाकारों को इसे केवल फायदे-नुकसान के चश्मे से नहीं, बल्कि भविष्य की तैयारी के रूप में देखना चाहिए।