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आज के वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में भारत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, और उसकी नीतियां विश्व स्तर पर चर्चाओं का विषय बन रही हैं। हाल के दिनों में भारत ने वैश्विक व्यापार में अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देने की दिशा में कदम उठाए हैं। यह पहल न केवल भारत के आर्थिक भविष्य को परिभाषित करेगी, बल्कि विश्व स्तर पर भी नए समीकरण बनाएगी।
डिडॉलराइजेशन (डॉलर को वैश्विक व्यापार की मुद्रा के रूप में हटाने की प्रक्रिया) पर चर्चा तब शुरू हुई जब वैश्विक मंच पर चीन, रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे ब्रिक्स देशों ने इस विचार को गंभीरता से लेना शुरू किया। इन देशों ने अमेरिकी वित्तीय प्रतिबंधों के प्रभाव को देखते हुए, एक साझा मुद्रा बनाने पर विचार किया। हालांकि यह अभी प्रारंभिक चरण में है, लेकिन इसका उद्देश्य स्पष्ट है—अमेरिकी डॉलर के प्रभाव को कम करना।
भारत ने इस पहल में कई ठोस कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार और भुगतान को भारतीय रुपये में सेटल करने की अनुमति दी है। इसका सीधा असर यह है कि जिन देशों पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए हैं, जैसे रूस, वे भारतीय मुद्रा में लेन-देन कर सकते हैं। रूस के साथ भारत ने तेल व्यापार में इस रणनीति का सफलतापूर्वक उपयोग किया है, जो कि डॉलर पर निर्भरता कम करने की दिशा में एक मजबूत संकेत है।
हालांकि, डिडॉलराइजेशन की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है। अमेरिकी डॉलर दशकों से वैश्विक व्यापार और वित्तीय लेन-देन में प्रमुख मुद्रा के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। इसका एक कारण अमेरिका की आर्थिक ताकत और उसके वैश्विक निवेश हैं। दुनिया भर के देश अमेरिकी डॉलर को प्राथमिक मुद्रा के रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि यह स्थिरता प्रदान करता है। लेकिन हाल के वर्षों में अमेरिका द्वारा अपने वित्तीय तंत्र को "हथियार" के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति ने अन्य देशों को इसके विकल्प तलाशने के लिए प्रेरित किया है।
इस बीच, चीन की मुद्रा युआन तेजी से उभर रही है। चीन के साथ व्यापार करने वाले देशों को अब डॉलर की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे युआन में लेन-देन कर सकते हैं। रूस ने भी इस दिशा में बड़ा कदम उठाया है, और अब उसकी अधिकतर व्यापारिक गतिविधियां युआन में हो रही हैं। भारत ने हालांकि युआन में व्यापार करने से इंकार कर दिया, क्योंकि यह भारतीय रुपये की स्थिति को कमजोर कर सकता है।
ब्रिक्स देशों के बीच साझा मुद्रा बनाने का विचार भी सामने आया है। हालांकि, इसे अमल में लाना आसान नहीं होगा। इन देशों की भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना बहुत भिन्न है। यूरोपीय संघ में यूरो एक सिंगल करेंसी है, लेकिन यूरोप की भौगोलिक और आर्थिक संरचना इसे संभव बनाती है। ब्रिक्स देशों के लिए ऐसा करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा।
अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था पर एक और बड़ा सवाल उसकी स्विफ्ट प्रणाली (SWIFT) को लेकर है, जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय लेन-देन का प्रमुख माध्यम है। अमेरिका ने इस प्रणाली का इस्तेमाल करके रूस जैसे देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं। इस कदम ने अन्य देशों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या वे अमेरिकी वित्तीय प्रणाली पर इतनी निर्भरता बरकरार रख सकते हैं। भारत जैसे देश अब ऐसी रणनीतियों पर काम कर रहे हैं, जो उन्हें स्विफ्ट प्रणाली पर कम निर्भर बनाती हैं।
डिडॉलराइजेशन के समर्थन में भारत की नीतियां स्पष्ट रूप से "ट्रेड रिस्क" को कम करने की दिशा में केंद्रित हैं। कई छोटे और विकासशील देश, जिनके पास अमेरिकी डॉलर का पर्याप्त भंडार नहीं है, भारतीय मुद्रा में व्यापार करने के इच्छुक हैं। यह न केवल भारतीय रुपये को मजबूत करेगा, बल्कि इन देशों के साथ भारत के व्यापारिक संबंधों को भी प्रगाढ़ बनाएगा।
फिर भी, यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारत या अन्य ब्रिक्स देश अमेरिकी डॉलर को पूरी तरह से बदल सकते हैं। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होगी और इसमें कई साल लग सकते हैं। वर्तमान में, भारत का उद्देश्य डॉलर पर निर्भरता को पूरी तरह खत्म करना नहीं, बल्कि इसे यथासंभव कम करना है।
अंततः, डिडॉलराइजेशन की दिशा में भारत के कदम एक बड़े वैश्विक बदलाव का संकेत हैं। यह कदम न केवल भारत की आर्थिक संप्रभुता को मजबूत करेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर आर्थिक शक्ति संतुलन में भी बदलाव लाएगा। हालांकि, इस प्रक्रिया में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। भारत और अन्य ब्रिक्स देशों को अपनी नीतियों को बेहद सतर्कता और दूरदर्शिता के साथ लागू करना होगा।