Social Media Ban |
आजकल के दौर में बच्चों में सोशल मीडिया की लत एक आम समस्या बन चुकी है। मोबाइल और इंटरनेट से जुड़े बच्चों का समय बीतता जा रहा है, और माता-पिता इससे परेशान हैं। इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलिया का फैसला खासा चर्चा में है। उन्होंने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने का निर्णय लिया है, जो नवंबर 2025 से लागू होगा। इस कानून के तहत सोशल मीडिया कंपनियों को बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। यदि वे ऐसा करने में असफल रहती हैं, तो उन्हें भारी जुर्माना भरना होगा, जो पांच करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर तक हो सकता है।
भारत में भी माता-पिता बच्चों की सोशल मीडिया और ऑनलाइन गेमिंग की लत से चिंतित हैं। एक सर्वे के अनुसार, 9 से 17 साल के बच्चे रोजाना 3 से 6 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। कई माता-पिता चाहते हैं कि भारत में भी ऐसा ही कानून लाया जाए। उनका मानना है कि यह बच्चों की पढ़ाई, मानसिक स्वास्थ्य, और सामाजिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सोशल मीडिया को पूरी तरह बैन करना उचित है?
ऑस्ट्रेलिया में यह कदम एक विशेष स्टडी के आधार पर उठाया गया है। हालांकि, इस स्टडी के लेखकों ने इस कानून को लेकर अपनी असहमति जताई है। उनका कहना है कि स्टडी का गलत मतलब निकाला गया और उन्हें इस फैसले के बारे में सही से पूछा भी नहीं गया। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि यह फैसला कितना व्यावहारिक है और क्या इसे भारत में लागू करना चाहिए।
इस बैन के समर्थकों का कहना है कि सोशल मीडिया का कम इस्तेमाल बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। इससे वे साइबर बुलिंग, सामाजिक दबाव और हिंसक कंटेंट से बच सकते हैं। साथ ही, उन्हें वास्तविक दुनिया की गतिविधियों में समय बिताने का मौका मिलेगा और पढ़ाई में ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी। लेकिन इसके आलोचक मानते हैं कि इससे बच्चों के सामाजिक संबंधों और डिजिटल स्किल्स पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
ऑस्ट्रेलिया में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चे इन प्लेटफॉर्म्स का उपयोग न करें। इसके लिए वे अकाउंट वेरिफिकेशन और बायोमेट्रिक चेक्स का सहारा ले सकते हैं। लेकिन आज की तकनीक के दौर में बच्चे वीपीएन का इस्तेमाल करके इन प्रतिबंधों को आसानी से दरकिनार कर सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि नियम तोड़ने पर बच्चों को कोई पेनल्टी नहीं लगेगी, जिससे कानून के प्रभावी होने पर सवाल खड़े होते हैं।
विभिन्न शोध बताते हैं कि सोशल मीडिया का बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह कहना अभी मुश्किल है। सैकड़ों स्टडीज के बावजूद यह साबित नहीं हुआ है कि सोशल मीडिया का उपयोग मानसिक समस्याओं का सीधा कारण है। हो सकता है कि अन्य कारण, जैसे घर छोड़ना या युवावस्था में बदलाव, इन समस्याओं के लिए जिम्मेदार हों।
ऑस्ट्रेलिया के इस कदम को लेकर वैश्विक स्तर पर भी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। नॉर्वे भी 15 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने पर विचार कर रहा है। भारत में, हालांकि, डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट 2023 के तहत बच्चों की सुरक्षा के लिए कुछ प्रावधान हैं, लेकिन सीधे तौर पर सोशल मीडिया के उपयोग को नियंत्रित करने वाला कोई कानून नहीं है।
भारत में यदि ऐसा कानून लागू होता है, तो इसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सोशल मीडिया बच्चों के लिए एक दोधारी तलवार की तरह है। जहां यह उन्हें क्रिएटिव बनने का मौका देता है, वहीं वे ऑनलाइन बुलिंग और नकारात्मक प्रभावों का शिकार हो सकते हैं। इसके अलावा, पेरेंट्स की सहमति के बिना बच्चों का डेटा इस्तेमाल करना भारत में गैरकानूनी है, जिससे कानून का पालन और निगरानी करना और भी जटिल हो सकता है।
सोशल मीडिया की दुनिया में बच्चों को लेकर ऐसे कानून का उद्देश्य उनकी भलाई सुनिश्चित करना है, लेकिन इसके प्रभावों का संतुलन बनाना बेहद जरूरी है। इस परिप्रेक्ष्य में, यह चर्चा जारी रहेगी कि क्या भारत जैसे देश में सोशल मीडिया पर इस तरह की पाबंदियां लगाना सही होगा।