Power of Shiva’s Third Eye: क्या है इसका रहस्य?

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 महादेव के तीसरे नेत्र की कथा और उससे जुड़ी घटनाएं हिंदू धर्म में गहरे धार्मिक और दार्शनिक अर्थ रखती हैं। यह कथा न केवल भगवान शिव के परम संहारक रूप को प्रस्तुत करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कैसे उन्होंने अधर्म और अन्याय को समाप्त करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग किया।



शिव का तीसरा नेत्र: आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक महत्व

महादेव के तीसरे नेत्र का उद्घाटन एक विशेष स्थिति में होता है, जब संसार में अन्याय, असुरक्षा या अधर्म का प्रसार हो रहा हो। शिव का तीसरा नेत्र केवल एक आँख मात्र नहीं है; यह दैवीय ऊर्जा का प्रतीक है, जो नकारात्मकता, अहंकार, और अन्याय का समूल नाश कर देता है। हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि शिव का यह नेत्र उन ऊर्जाओं का स्रोत है जो सत्य और धर्म की रक्षा के लिए प्रकट होती हैं। तीसरा नेत्र एक संदेश देता है कि सच्चाई और संतुलन की स्थापना के लिए केवल प्रेम और करुणा ही नहीं, बल्कि संहार भी आवश्यक है।


दक्ष प्रजापति का यज्ञ और सती का बलिदान

इस कथा का प्रारंभ तब होता है जब महादेव के भक्त और उनकी पत्नी देवी सती अपने पिता, दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाती हैं। दक्ष ने शिव को अपने यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया था और वहां शिव का अपमान किया। इससे आहत होकर सती ने यज्ञ की अग्नि में अपने प्राण त्याग दिए। शिव के इस प्रकार अपमान को देखकर उनका क्रोध ज्वाला के रूप में प्रकट हुआ। उनके इस असीम क्रोध ने संपूर्ण यज्ञ को ध्वस्त कर दिया, और शिव ने अपना रुद्र रूप धारण कर दक्ष का अंत किया।

यह घटना हिंदू धर्म में 'विरक्ति' (detachment) के सिद्धांत को भी दर्शाती है। शिव का निर्णय कि वह संसार के मोह से दूर तपस्या में लीन हो जाएं, यह स्पष्ट करता है कि वे संसार की माया और इसके संबंधों से ऊपर हैं। इस घटना के माध्यम से हिंदू धर्म सिखाता है कि मोह (attachment) और माया (illusion) से मुक्ति आवश्यक है ताकि व्यक्ति सत्य को पहचान सके।


पार्वती का जन्म और पुनः मिलन

सती के निधन के बाद, शिव संसार के सभी बंधनों से विमुक्त होकर घोर तपस्या में लीन हो गए। दूसरी ओर, देवी सती ने पर्वतराज हिमालय और माता मैना के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने बाल्यकाल से ही शिव को अपना आराध्य माना और उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की। यह कथा प्रेम, भक्ति और पुनः जन्म के सिद्धांत को दर्शाती है। हिंदू धर्म में पुनर्जन्म का यह संदेश एक महत्वपूर्ण तत्व है, जो आत्मा के अमरता और उसके एकत्रीकरण को समझाता है।


ताड़का का आतंक और शिव के प्रति पार्वती का प्रेम

ताड़का नामक राक्षस ने अपने आतंक से देवताओं को अत्यंत कष्ट दिया था। ब्रह्मा के वरदान के अनुसार, ताड़का का वध केवल शिव और पार्वती के पुत्र द्वारा ही हो सकता था। देवताओं की प्रार्थना पर कामदेव ने शिव की तपस्या भंग करने का प्रयास किया, लेकिन शिव का तीसरा नेत्र खुल गया और कामदेव भस्म हो गए। शिव का तीसरा नेत्र केवल क्रोध का नहीं, बल्कि एक दिव्य शक्ति का प्रतीक है, जो असत्य और अन्याय को जला देता है।

कामदेव के बलिदान से ही फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली का पर्व मनाया जाने लगा। यह त्योहार प्रेम, त्याग, और विजय का प्रतीक है। इस घटना के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि त्याग और प्रेम की शक्ति से ही सत्य की विजय होती है।


अंधकासुर का जन्म और उसके विनाश की गाथा

एक बार पार्वती ने शिव की आंखों को ढक दिया, जिससे संपूर्ण सृष्टि अंधकार में डूब गई। इस दौरान शिव के पसीने से अंधक नामक राक्षस का जन्म हुआ, जो अंधकार का प्रतीक था। अंधक, जिसने असुरों के बीच अपना जीवन बिताया, शक्तिशाली और क्रूर बन गया। ब्रह्मा जी के वरदान से उसे अहंकार हो गया और उसने देवी पार्वती से विवाह का प्रस्ताव दिया। जब पार्वती ने इसे ठुकरा दिया, तो अंधक ने जबरदस्ती करने का प्रयास किया।

शिव के तीसरे नेत्र से अंधक का अंत हुआ। यह कथा यह भी दर्शाती है कि हिंदू धर्म में असुरता और अधर्म का नाश आवश्यक है और शक्ति का उपयोग केवल तब किया जाना चाहिए जब धर्म की रक्षा की बात हो। शिव का तीसरा नेत्र इस सत्य का प्रतीक है कि शक्ति का उपयोग तभी करना चाहिए जब इसका उद्देश्य धर्म और सत्य की रक्षा हो।


जालंधर का जन्म और वृंदा का तप

इंद्र और गुरु बृहस्पति शिव के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत जा रहे थे, लेकिन शिव ने उनकी परीक्षा लेने का सोचा और एक ऋषि का रूप धर लिया। इंद्रदेव ने गुस्से में आकर ऋषि पर हमला किया, और इसी क्रोध से शिव के नेत्र से जालंधर का जन्म हुआ। जालंधर एक शक्तिशाली असुर बना और उसका जीवन शक्ति और तपस्या का प्रतीक था। उसकी पत्नी वृंदा के पति व्रत के कारण जालंधर को अमरता समान शक्ति प्राप्त थी। यह कथा हिंदू धर्म में पतिव्रता धर्म की महिमा को भी दर्शाती है। वृंदा का तप, जो उसके पति को अमर बनाता था, नारी शक्ति और निष्ठा का प्रतीक है।


जालंधर का अंत और तुलसी का जन्म

जब जालंधर ने शिव के साथ युद्ध में पराजय का सामना किया, तब विष्णु ने उसकी पत्नी वृंदा का पति व्रत तोड़ दिया, जिससे जालंधर की शक्ति समाप्त हो गई। वृंदा ने अपने पति की मृत्यु के बाद आत्मदाह किया, और उसी के पवित्र राख से तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ। तुलसी का पौधा आज भी हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र और श्रद्धा का प्रतीक है। वृंदा का त्याग और तपस्या यह दर्शाते हैं कि हिंदू धर्म में नारी शक्ति, निष्ठा और पवित्रता को कितना उच्च स्थान दिया गया है।


त्रिनेत्रं त्रैलोक्यसंहारकं कालं शिवं शांतमयम्।
सृष्टिस्थितिप्रलयकर्तारं नमामि भक्तवत्सलम्॥

जो त्रिनेत्रधारी हैं, तीनों लोकों का संहार करने वाले काल के रूप में शिव हैं, जो शांत और करुणामय हैं। जो सृष्टि, स्थिति, और प्रलय के कर्ता हैं, ऐसे भक्तवत्सल शिव को मैं नमन करता हूँ। यह श्लोक महादेव के तीसरे नेत्र की महिमा का वर्णन करता है। शिव का तीसरा नेत्र अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना के लिए ही खुलता है, जिससे सृष्टि में संतुलन बना रहता है। यह लेख भी इसी तत्व पर आधारित है। 

महादेव का तीसरा नेत्र केवल एक आंख नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की सच्चाई और धर्म का प्रतीक है। यह नेत्र शक्ति, करुणा और न्याय का संतुलन है। शिव का तीसरा नेत्र अधर्म का नाश कर धर्म और सत्य की स्थापना के लिए प्रकट होता है। हिंदू धर्म में शिव का यह रूप हमें सिखाता है कि जीवन में सत्य और धर्म की राह पर चलना ही हमारे जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए।


महादेव के इस दिव्य गाथा में संहार और सृजन का संयोजन है, जो हिंदू धर्म के सिद्धांतों का प्रतीक है और हमें यह सिखाता है कि अधर्म का अंत और धर्म की रक्षा ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।


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