भारत के उत्तराखंड राज्य में हिमालय की गोद में स्थित ‘रूपकुंड झील’, एक ऐसी रहस्यमय झील है, जिसे कंकालों वाली झील के नाम से भी जाना जाता है। हर साल बड़ी संख्या में पर्यटक और वैज्ञानिक इस झील के रहस्यों को जानने के उद्देश्य से यहां आते हैं। यह झील 5,029 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और साल के अधिकांश समय बर्फ से ढकी रहती है। जब गर्मियों में बर्फ पिघलती है, तब इस झील के भीतर कई सौ साल पुराने कंकाल दिखाई देते हैं। यह तथ्य ही इसे विशेष बनाता है। यहां हम इस झील से जुड़े तमाम ऐतिहासिक, पौराणिक और वैज्ञानिक पहलुओं पर चर्चा करेंगे।
रूपकुंड झील का भूगोल और स्थान
रूपकुंड झील उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है, जो हिमालय के सुंदर और शांत परिवेश में बसी हुई है। झील की गहराई लगभग 2 मीटर है, और इसका आकार गोल है। इस झील तक पहुँचने का मार्ग बहुत कठिन और रोमांचक है, जो पर्वतारोहियों और ट्रेकर्स के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। इस क्षेत्र को ‘देवभूमि’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ अनेक प्राचीन मंदिर और धार्मिक स्थल स्थित हैं। नंदा देवी पर्वत, जो कि देवी पार्वती का प्रतीक है, इसके पास स्थित है और इस क्षेत्र में धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व का केंद्र माना जाता है।
पौराणिक मान्यताएं और कहानियाँ
रूपकुंड झील से जुड़ी कई पौराणिक कहानियां हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी एक राजा और रानी की है जो नंदा देवी के दर्शन करने आए थे। कहा जाता है कि इस यात्रा में राजा ने कई नौकर-चाकरों और नाचने वाली लड़कियों के साथ इस पवित्र स्थल का अपमान किया, जिससे देवी नाराज हो गईं। उनका क्रोध राजा और उनके साथियों पर बिजली बनकर टूटा, और सभी मौत के आगोश में समा गए। ऐसा माना जाता है कि झील में पाए गए कंकाल इन्हीं लोगों के हैं, जो देवी के प्रकोप का शिकार हुए। इसी कारण यहां के स्थानीय लोग आज भी देवी नंदा को अत्यंत श्रद्धा और भय से पूजते हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और शोध
रूपकुंड झील का सबसे पहले उल्लेख 1942 में मिलता है, जब एक ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड ने इस झील में हड्डियाँ और कंकाल देखे। प्रारंभ में ऐसा माना गया कि ये कंकाल जापानी सैनिकों के हैं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत में घुसपैठ के प्रयास में मारे गए होंगे। लेकिन बाद में हुए शोध से यह धारणा बदल गई। वैज्ञानिकों ने पाया कि ये कंकाल सदियों पुराने हैं और किसी एक समय के नहीं हैं, बल्कि कई कालखंडों में मारे गए लोगों के हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, ये कंकाल संभवतः 9वीं शताब्दी के हो सकते हैं।
वैज्ञानिक अध्ययन और डीएनए विश्लेषण
रूपकुंड झील में मिले कंकालों पर डीएनए विश्लेषण से यह पता चला कि यह एक समूह विशेष का है, जो किसी भारी प्राकृतिक आपदा का शिकार हुआ था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन लोगों की मृत्यु सिर पर किसी भारी वस्तु के गिरने से हुई थी। यह संभव है कि वे सभी एक बर्फीले तूफान में फंस गए थे और ओलों के कारण उनकी जान गई। कई कंकालों के साथ चप्पलें, आभूषण और लकड़ी के सामान भी मिले हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे लोग किसी धार्मिक यात्रा पर थे।
स्थानीय लोककथाएँ
गढ़वाल क्षेत्र में इस झील से जुड़ी कई लोककथाएँ प्रचलित हैं। इनमें से एक प्रसिद्ध कहानी जीतू बगड़वाल की है, जो अपनी बहन शोभिनी को लाने के लिए एक यात्रा पर निकले थे। कहते हैं कि रास्ते में उन्होंने अपनी बांसुरी बजाई, जिसके मधुर सुरों ने नौ परियों को आकर्षित किया। जीतू को यह पता नहीं था कि ये परियाँ बन देवियाँ (वन देवी) हैं। जीतू के प्रेम और समर्पण से प्रसन्न होकर वे परियाँ उसे अपने साथ ले गईं। जीतू बगड़वाल आज भी एक पवित्र आत्मा माने जाते हैं, और उनके नाम पर गढ़वाल में कई जगहों पर पूजा-अर्चना होती है।
रूपकुंड का पर्यटन महत्व
रूपकुंड झील साहसिक यात्रा प्रेमियों और धार्मिक आस्था रखने वाले लोगों के लिए एक अद्वितीय स्थल है। झील के प्रति लोगों की उत्सुकता और आकर्षण बढ़ाने के लिए उत्तराखंड सरकार ने इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रचारित किया है। यहां तक पहुंचने के लिए 5 से 7 दिन का ट्रेक किया जाता है, जिसमें चारों ओर हिमालय की बर्फीली पहाड़ियों का सुंदर दृश्य और नंदा देवी का आशीर्वाद महसूस किया जा सकता है। यहां की यात्रा कठिन और जोखिम भरी है, इसलिए केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ और साहसी लोग ही यहां आ पाते हैं।
रूपकुंड में पाए गए कंकालों की उत्पत्ति पर वैज्ञानिक विवाद
रूपकुंड झील के कंकालों की उत्पत्ति और मृत्यु का कारण कई दशकों से वैज्ञानिक विवाद का विषय रहा है। इनमें से कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह एक प्राचीन तीर्थयात्रा दल था, जो किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हुआ। वहीं कुछ अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि ये कंकाल किसी प्राचीन युद्ध के शिकार लोगों के हैं। रूपकुंड झील के कंकालों का समय-समय पर डीएनए विश्लेषण किया गया है, जिससे यह पाया गया कि ये विभिन्न स्थानों से आए हुए लोग थे।
डीएनए विश्लेषण से मिले नए तथ्य
हाल ही में हुए डीएनए विश्लेषण से पता चला कि इन कंकालों में कुछ लोगों की मृत्यु 9वीं शताब्दी में हुई, जबकि कुछ अन्य की 18वीं शताब्दी में। इससे यह सिद्ध होता है कि ये कंकाल एक ही समय के नहीं हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि 9वीं शताब्दी में एक तीर्थयात्रा के दौरान एक बड़ा हिमस्खलन हुआ होगा, जिसकी चपेट में आने से इन लोगों की मृत्यु हो गई। 18वीं शताब्दी के कंकालों की उपस्थिति का कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है।
रूपकुंड झील का पर्यावरणीय और प्राकृतिक महत्व
रूपकुंड झील एक प्राकृतिक स्थल है, जो हिमालय की जैव विविधता को समेटे हुए है। इस क्षेत्र में मिलने वाली वनस्पतियाँ और जीव-जंतु इसे एक पारिस्थितिकी स्थल के रूप में महत्वपूर्ण बनाते हैं। हिमालय के अन्य क्षेत्रों की तरह यहाँ की जैव विविधता भी अद्वितीय है, जिसमें दुर्लभ वनस्पतियाँ और जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं। यह झील हिमालयी पारिस्थितिकी का एक हिस्सा है, और इसका संरक्षण आवश्यक है ताकि यहाँ की जैव विविधता संरक्षित रह सके।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
रूपकुंड झील के प्रति धार्मिक आस्था रखने वाले लोग इसे देवी नंदा के आशीर्वाद का प्रतीक मानते हैं। हर बारहवें वर्ष यहां नंदा देवी राजजात यात्रा का आयोजन होता है, जो एक धार्मिक यात्रा है। इस यात्रा में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं और वे अपने श्रद्धा भाव से देवी नंदा के दर्शन करते हैं। इस यात्रा का आयोजन पहाड़ों की कठिनाइयों और मौसम की प्रतिकूलताओं को सहते हुए किया जाता है, जो इसे एक विशेष धार्मिक महत्व प्रदान करता है।
सर्वदा हिमधाम्न्यां स्थितं रहस्योदधौ स्थले।
कंकालयुक्तं रूपकुंडं देवस्थानं नमाम्यहम्॥
मैं हिमालय के उस पवित्र स्थान को प्रणाम करता हूँ, जो सदा बर्फ की गोद में स्थित रहस्यमयी झील है, और जहाँ अनेकों कंकालों का रहस्य विद्यमान है। यह श्लोक रूपकुंड झील के उस रहस्य को संबोधित करता है, जो हिमालय की गोद में एक रहस्यमय स्थल के रूप में बसा है और जहाँ कंकालों का ढेर मौजूद है।